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तथा पितृश्राद्धकी प्रतिष्ठाके लिये यथाशक्ति क्रमश

सुवर्ण ओर रजतकी दक्षिणा दे।* इसके बाद

“विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्‌।'-- ऐसा कहकर देवताओंका

विसर्जन करे ओर “वाजेवाजेऽवत वाजिनो नो

धनेषु विप्रा अमृता ऋतज्ञा:। अस्य मध्वः पिबत

मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः ॥* (यजु°

२१। ११)-इस मन्त्रये पिता आदिका विसर्जन

करे ॥ २६--३२॥

(तत्पश्चात्‌ सव्यभावसे " देवताभ्यश्च ० ' इत्यादि

पढ़कर भगवानूका स्मरण करे । फिर अपसव्यभावसे

रक्षादीपको बुझा दे। उसके बाद सव्यभावसे

भगवानूसे प्रार्थना करे--'प्रमादात्कुर्वतां कर्म

प्रच्यवेताध्वरेषु यत्‌। स्मरणादेव तद्‌ विष्णोः सम्पूर्ण

स्यादिति श्रुति:॥ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या

तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति स्यो

वन्दे तमच्युतम्‌॥' इत्यादि) तदनन्तर “आ मा

वाजस्य०' ( यजु° ९।१९) इत्यादि मन्त्र पढ़कर

ब्राह्मणके पीछे-पीछे जाय और ब्राह्मणकी परिक्रमा

करके अपने घर्मे जाय। प्रत्येक मासकी

अमावस्याको इसी प्रकार पार्वण-श्राद्ध करना

चाहिये॥ ३३ ॥

अब मैं एकोदिष्ट श्राद्धका वर्णन करूँगा। यह

श्राद्ध पूर्ववत्‌ ही करे। इसमें इतनी ही विशेषता

है कि एक ही पवित्रक, एक हो अर्घ्यं ओर एक

ही पिण्ड देना चाहिये। इसमें आवाहन, अग्निकरण

और विश्वेदेव-पूजन नहीं होता। जहाँ तृप्ति पूछनी

हो, वहाँ 'स्वदितम्‌?' ऐसा प्रश्न करे। ब्राह्मण

उत्तर दे -- सुस्वदितम्‌।', " उपतिष्ठताम्‌' '-- कहकर

* दक्षिणाका संकल्प इस प्रकार है--जिकुशा, जौ और जल हाथमें लेकर-' ॐ

(मातामहप्रमाल्वमहवृद्धप्रमातामहा् च) अमुकामुकशर्मणाम्‌ अमुकयआाद्धसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां

अर्पण करे। अक्षव्योदक भी दे। विसर्जनके समय

अभिरम्यताम्‌' का उच्चारण करे। ब्राह्मण कहें --

"अभिरताः स्मः।' शेष सभी बातें पूर्ववत्‌ करनी

चाहिये॥ ३४--३६॥

अब सपिण्डीकरणका वर्णन करूँगा। यह

वर्षके अन्तमे ओर मध्यमें भी होता है। इसमें

पितरोंके लिये तीन पात्र होते हैं और प्रेतके लिये

एक पात्र अलग होता है। चारों अर्ध्यपात्रोंमें पवित्री,

तिल, फूल, चन्दन और जल डालकर भर दिया

जाता है। फिर उन्हींसे श्राद्धकर्ता पुरुष अर्घ्य देता

है। "ये समाना:०' (यजु० १९। ४५-४६) इत्यादि

दो मन्त्रोंसे प्रेतके अर्ध्यपात्रकों क्रमश: तीनों

पितरोंके अर्घ्यपात्रमें मिलाया जाता है। इसी प्रकार

पिण्डदान, दान आदि पूर्ववत्‌ करके प्रेतके पिण्डको

पितरोंके पिण्डमें मिलाया जाता है। इससे प्रेतको

“पितृ” पदवी प्राप्त होती है॥३७--३९॥

अब "आभ्युदयिक श्राद्ध बतलाता हूँ। इसकी

सब विधि पूर्ववत्‌ है। इसमें पितृसम्बन्धी मन्त्रके

अतिरिक्त अन्य मन्त्रोंका जप करना चाहिये।

पूर्वाह्वकालमें आभ्युदयिक श्राद्ध और उसकी

प्रदक्षिणा करनी चाहिये। इसमें कोमल कुश ही

उपचार है। यहाँ तिलके स्थानपर जौका ही

उपयोग होता है। ब्राह्मणोंसे पितरोंकी तृप्तिके

लिये प्रश्न करते समय “सम्पन्नम्‌?” का प्रयोग

करना चाहिये। ब्राह्मण उत्तर दे 'सुसम्पन्नम्‌'। इसमें

दही, अक्षत और बेर आदिके ही पिण्ड होते हैं।

आवाहनके समय पूछे -' मैं ' नान्दीमुख ' नामवाले

पितरोंका आवाहन करूँगा।' इसी प्रकार अक्षय्य-

पितृफितामहप्रपितामहानाम्‌

हिरष्यमग्निदैयत्यं

रन्मूत्योपकल्पतं द्रव्यं खा यधानामगोज़ाय ब्राह्मणाय दक्षिणात्वेन दातुमहमुत्पुजे।' तुरंत दिया जाता हो तो 'सम्प्रददे' कहना चाहिये।

मोटक, तिल, जल लेकर ' ओमधामुकगोत्रस्य पितु: अमुकशर्मण: कृतैतच्छाद्धप्रतिशा्॑ रजतं चन्द्रदैयत्यं तन्मूल्योपकल्पितं द्रब्यं यधानाम'

इत्यादि कहकर पिता आदिके लिये दक्षिणा दें।

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