* अध्याय ९ ९७ *
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तृप्तिक लिये "प्रीयताम्" ऐसा कहे । फिर पूछे -- | प्रतिपदाको श्राद्ध करनेसे बहुत धन प्राप्त होता है ।
“मैं नान्दीमुख पितरोंका तृप्ति-वाचन करारऊगा।'
ब्राह्मणोंकी आज्ञा लेकर कहे --'नान्दीमुखा: पितरः
प्रीयन्ताम्।' (नान्दीमुख पितर तृप्त एवं प्रसन्न
हों।) (माता, पितामही, प्रपितामही) पिता,
पितामह, प्रपितामह और (सपत्नीक) . मातामह,
प्रमातामह तथा वृद्धप्रमातामह -ये नान्दीमुख
पितर् हैं ॥ ४०--४४॥
आभ्युदयिक श्राद्धमे स्वधा" का प्रयोग न
करे और वुग्म ब्राह्य्णोको भोजन करावे। अब मैं
पितरोंकी तति बतलाता हूँ। ग्राम्य अनसे तथा
जंगली कन्द, मूल, फल आदिमे एक मासतक
पितरोंकी तृप्ति बनी रहती है ओर गायके दूध एवं
खीरसे एक वर्षतक पितरोंकी तृप्ति-रहती है तथा
वर्षा ऋतुमें त्रयोदशीको विशेषतः मघा-नक्षत्रमें
किया हुआ श्राद्ध अक्षय होता है।' मन्त्रका पाठ
करनेवाला, अग्निहोत्री, शाखाका अध्ययन करने-
वाला, छहों अङ्गका विद्धान्, त्रिणाचिकेत', त्रिमधुः,
धर्मद्रोणकाः पाठ करनेवाला, त्रिसुपर्ण तथा
वृहत् सामक ज्ञाता -- ये ब्राह्मण पंक्तिपावन (पंक्तिको
पवित्र करनेवाले) माने गये हैँ ॥ ४५--४७॥
अब काप्य श्राद्धकल्पका वर्णन करूँगा।
द्वितीयाको श्राद्ध करनेसे श्रेष्ठ स्त्री मिलती है।
चतुर्थीकों किया हुआ श्राद्ध धर्म और कामको
है। पुत्रकी इच्छावाला पुरुष पञ्ममीको श्राद्ध
करे। पष्ठीके श्राद्धसे मनुष्य श्रेष्ठ होता है। सप्तमीके
श्राद्धसे खेतीमें लाभ होता और अष्टमीके श्राद्धसे
अर्थकी प्राप्ति होती है। नवमीको श्राद्धका अनुष्ठान
करनेसे एक खुरवाले घोडे आदि , पशु प्रात
होते हैं। दशमीके श्राद्धसे गो-समुदायकी
उपलब्धि होती है। एकादशीके श्राद्धसे परिवार
और द्वादशीके श्राद्धसे धन-धान्य बढ़ता है।
त्रयोदशीको श्राद्ध करनेसे अपनी जातिमें श्रेष्ठता
प्राप्त होती है। चतुर्दशीको उसीका श्राद्ध किया
जाता है, जिसका शस्त्रद्वारा वध हुआ है।
अमावास्याको सम्पूर्ण मृत व्यक्तियोंके लिये श्राद्ध
करनेका विधान है ॥ ४८-५१॥
"जो दशाणदेशके वनमें संति व्याध थे, वे
कालंजर गिरिपर मृग हुए, शरद्वीपमें चक्रवाक हुए
तथा मानस सरोवरे हंस हुए। वे ही अब
कुरुक्षेत्रमें वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मण हुए दै ।
अब उन्होने दूरतकका मार्गं तय कर लिया है;
मुमलोग उनसे बहुत पीछे रहकर कष्ट पा रहे
१. कुछ लोग श्रद्धे मांसका भी सिंघान मानते हैं, परंतु श्राद्धकर्ममें मांस कितना निन्दनीय है, यह श्रीमद्धागवत, सप्तम स्कन्ध,
अध्याय १५ के इन श्लोकोसे स्पष्ट हो जाता है--
दद्यादामिषं
न चाघ्रादध्मदत्ववित् । मुत्यत्नी: स्यात्यरा प्रीतिर्यथा ३ पशुहिंसया॥
मैतादुरः परो धर्मो नृणां सद्धर्ममिच्छताम् । न्यासो दण्डस्य भूतेषु सनोवाक्रायजस्थ यः ॥
दव्ययदर्यक्यमाणं दुष्टा भूताति जिभ्यति | एषं माकरुणो हन्यदतस्तो दासुतृन् ध्रुवम् ॥
(७-८, १०)
“धर्मक परमको समझनेयाला पुरुष श्राद्धमें ( खानेके लिये) मांस न दे और न स्वयं हो खाय; क्योकि पितृगणकी तृप्ति जैसी मुनिजनोचित
आहारसे होती है, वैसी पशुहिसासे तहाँ होती । सदधर्मकी इच्छावासे पुस्थोंके लिये ' सम्पूर्ण फ्राणियोंके प्रति मन, वाणी और शरीरसे दण्डका
त्याग कर देना'--इसके समान और कोई ब्लेष्ठ धर्म बही है । पुरुषकों द्रव्ययज्ञसे यजन करते देखकर जीव डरते हैं कि "यह अपने हौ
प्राणोंका पोषण करनेवाला निर्दय अज्ञानों मुझे अवश्य मार डालेगा।!' अतएव श्राद्धकर्म मांसका उपयोग कभी नहीं करता चाहिये।
२. द्वितीय कठके अन्तर्पत ' अवं वाव यः पकौ" इत्यादि 'त्रिणाचिकेत' कामक तीन अनुषाकॉकों पढ़ने या उसका अनुश्ान करनेवाला।
३. ' पथुवाता० ' इत्यादि तीन ऋचाओंका अध्ययन और मधुव्तका आचरण करनेवाला।
४, ' पर्मव्याधा दशार्णेषु" इत्यादि प्रसंगका नाम यहाँ ' धर्मद्रोण” कहा गया है।
५. "ब्रह्य येतु माम्" इत्यादि तोन अनुवार्कोका अध्यवन और तत्सम्बन्धो व्रत करवेवाला।