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हविष्यका माश्ात्‌ भोजन करते हों, इसलिये | उस स्तोत्रस बहुत संतुष्ट श । शान्ति उनके चरणोंमें

बड़े-बड्धे बज्ञोमे नियमपरायण महर्षि सदा | पड़ गये; फिर उन्होंने पष्क सपान गम्भीर

हुप्हारी पूजा करते हैं। तुम यरे स्तुत्त होकर | वाणीमें शान्तिसे कहा-- विप्रवर ! तुमने जो भक्तियूर्तक

सौमपान करते हों तथा वषट्का उच्चारण करके | मेरा रतन किया है, उससे मैं सम्तुष्ट हूँ और

+ संक्षिप्त मार्कण्डेयपुराण *

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हन्द्रके उद्देश्यसे दिये हुएं हविप्थको भी तुम्हीं।

भोग लगाते हो और इस प्रकार पूजित होकर तुम |

प्ाप्पूर्ण बिश्वक्का कल्याण करते हो। विप्रगण

अध्व फलकी प्रापकं लिग्रे मदा तुम्हारा ही

सजन करते ई । मप्पृणं वेदाम तुम्हारी महिमाका

गत किया जाता है। चज्ञपरत्यण श्रेष्ठ आहाण

तुम्हारो हतौ प्रसत्ाताक्रे लिये सर्वदा अज्ञॉलहित

वेदना पठन-पाठन करते रहते हैँ। तुस्हों व्तपरसग

अरा. सत्न भृतोंके स्वामी भगवान्‌ बिण्णु; देखराज

इन्द्र, अर्यमा, जलके स्वामी वरुणः, सूर्य तश्रा

चन्द्रमा हो । सम्पूर्ण देवता और असुर भी तुन्हींको

हब्रिष्योंद्ररा संतुष्ट ऋक्ते मगोवाच्छित्त फल प्राप्त

करते हैं। कितने ही महान्‌ देषसे दूत वस्तु क्यों

न हो, वह सब तुम्हारी ज्वालाओंके सामनि शुद्ध

हो जती है। सर खानं तुम्हारे भस्पसे किया

ह म्रान हों सबसे बढ़कर है, इसील्ये मुनिंगण

सन्ध्याकाले उस्न दिशेत्र रूपसें सेत्रन करते

हैं। जुबघि नामवाले अग्निदेव! मुन्ञपर प्रसन्न |

ह्ञोऊों। खायुरूए। नुझ्पर प्रत्न छो । अत्यन्त |

नर्म लान्तिवाट पावक्र! पुझपर प्रसक्ष होओ।|

बिद्युमव | आज मुझ प्रसन्न होओ। हविष्यभोजौ

अरग्निदेठ | तुप पेरी रक्षा कर । तदे! तुष्टारा जो

कल्झशणम्य स्वरूप है. देव! तुम्हारे जो सात

ज्वलामयों जिह्वां हैं, 3न सबके द्वार तुन मेरी

रक्षा करों-ठीक उसी तरह, जगे धिता अपने

पुत्रको रक्षा करता है। गँगे ठुहारी सतुति को है।

मार्कण्डेयजी कहते ईं--नुने! शान्तिके इस

प्रकार ६९६ मरने भगवन्‌ अग्पमिदेव ज्वालाओंसे

फिर हुए उनके सापक्ष 7 5.

तुम्हें ठर देना चाहता हूँ। तुम्हारी जो उच्छा हो,

माँग ली।' *

गया, क्योंकि आज आपके दिव्य स्वरूपका

प्रत्यक्ष दर्शन कर रहा हूँ। तथापि मैं भक्तिसे बिनीत

होकर जो कुछ आपसे कहता हूँ, ठै आप सूतें।

दतर! गेरे आचार्य अपने आश्रमसे भाईके वतर

गये हैँ। वे जब लौटकर आयें तो इस स्थानकों

आपसे क्षनाथ देखें; साथ ही यदि आपकी पुझपर

कृपा हो हों यह दूसरा तर भी दीजिये। मेरे

गुरुदेवके कोई पुत्र नहीं है, उन्हें कोई सुयोग्य

पुत्र प्रात हो; फिर उस पुत्रों वे जितना स्नेह

करें, उतना ही सम्पूर्ण भूतोंके प्रति भी उनका स्नेह

ह| उनका हृदय सबके प्रति कोमल ठ्न जाय।

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