Home
← पिछला
अगला →

अतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ]

* संतानमें समान-भाव रखें «

२५३

विद्या गुणाकरको प्रदान कौ और कहा--'वत्स ! तुम चालीस

दिनतक जलमें स्थित रहकर आधी राततम इस शुभ मन््रका जप

करो । ऐसा करनेपर यदि तुम मन्त्र सिद्ध कर लोगे तो मन्त्रकी

शक्तिके प्रभावसे वह यक्षिणी तुम्हें प्राप्त हो जायगी ।

गुणाकरने वैसा ही किया, किंतु वह यश्षिणीको प्राप्त नहीं कर

सका । अन्ते विवश होकर योगीकी आज्ञासे अपने घर लौट

आया । उसने अपने माता-पिताको नमस्कार कर वह रात्रि

बितायी । दूसरे दिन प्रातः वह गुणाकर संन्यासियोकि एक मठमें

गया और वहाँ शिष्य-रूपमें रहने लगा। पश्चाप्रिके मध्यमे

स्थित होकर उसने पवित्र हो यक्षिणीको प्राप्त करनेके लिये

करपर्दद्वारा बताये गये मन्त्रका पुनः जप कुरना प्रारम्भ किया,

पर यक्षिणी फिर भी नहीं आयी, जिससे उसे बड़ा कष्ट हुआ ।

बैतालने ज्ञानविशारद राजासे पूछा--'महाभाग !

गुणाकर अपनी प्रिया यक्षिणीको क्यों नहीं प्राप्त कर सका ?'

राजा बोला--रुद्रकिकर ! साधककी सिद्धिके लिये

तीन आवश्यक गुण होने चाहिये--मन, वाणी तथा शरीरका

ऐकात्य। मन और वाणीकी एकतासे किया गया कर्म

परलोकमें सुखप्रद होता है। वाणी और शरीरसे किया गया

कार्य सुन्दर होता है। कह इस जन्मे आशिक फल देता है

और परलोकमें अधिक फलप्रद होता है। मन और शरीरके

द्वारा किया गया कर्म दूसरे जन्ममे सिद्धि प्रदान करता है; परंतु

मन, वाणी और शरीर--इन तीनॉकी तन्मयतासे सम्पादित

कर्म इस जन्ममें ही शीघ्र फल प्रदान करता है और अन्तमें

मोक्ष भी प्रदान करता है। अतः साधकक कोई भी कार्य

अत्यन्त मनोयोगसे करना चाहिये।

गुणाकरने यद्यपि दो बार बड़े कष्टपूर्वक मन्त्रका जप

किया; किंतु दोनों ही बास्की साधनामें मनोयोगकी कमी रही ।

जलके भीतर तथा पश्चाग्रि-सेवन आदिमे शरीरका योग रहा

और वाणीसे जप भी होता रहा, किंतु गुणाकरका मन मनते

न लगकर यक्षिणीमें लगा हुआ था। इसी कारण उसे मन्त्र-

शक्तिपर विश्वास भी न हो सका। शरीर और बाणीका योग

होते हुए भी मनका योग न रहनेके कारण गुणाकर यक्षिणीको

प्राप्त न कर सका, किंतु कर्म तो उसने किया ही था, फलतः

परलोकमें वह यक्ष हुआ और यक्ष होकर यक्षिणीको प्राप्त

किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी भी कार्यकी पूर्ण

सिद्धिके लिये मन, वाणी और शरीर--इन तौनोंका ही योग

आवश्यक है। इनमें भी मनका योग परम आवश्यक है।

संतानमें समान-भाव रखें

(मझले पुत्रकी कथा)

वैत्तालने पुनः कहा--राजन्‌ ! चिक्रकूटमें रूपदत्त

नामका एक विख्यात राजा रहता था। एक दिन वह एक

मृगका पीछा करते हुए एक वनमें प्रविष्ट हो गया। मध्याह्-

कालमें वह एक सेवके पास पहुँचा और वहाँ उसने अपनी

सखीके साथ कमल-पुष्पोंका चयन करती हुई एक सुन्दर

मुनि-कन्याको देखा। उसके श्रेष्ठ रूपको देखकर राजाने उसे

अपनी रानी अनानेका निश्चय किया। वह कन्या भी राजाको

देखकर प्रसन्न हुई। दोनों परस्पर प्रीतिपूर्वकं एक दूसरेको

देखने लगे। उसको सखीसे राजाने जब उस कन्याका पता

पूछ, तब उसने कहा कि यह एक मुनिकी धर्मपुत्री है। उसी

समय उस कन्याके पिता यहाँ आ पहुँचे। मुनिको देखकर

राजाने विनयपूर्वक उनसे पूछा--'मुने ! उत्तम धर्म क्या है ?'

इसपर महामनीषी मुनि बोले--'राजन्‌ ! असहायका पालन-

पोषण, शरणागतकी रक्षा और दया करना यही मुख्य धर्म है।

भयभीतको अभय-दान देनेके समान कोई दान नहीं है।

उदष्डोको दण्ड देना चाहिये । पूज्यजनोंकी पूजा करनी चाहिये ।

गौ एवं ब्राह्मणमें नित्य आदर-भाव रखना चाहिये। दण्ड

देनेमें समान-भाव रखना चाहिये, पक्षपात नहीं करना

चाहिये। देवताकी पूजाम छल-छद्य एवै कपटको छोड़कर

श्रद्धा -धक्ति-रूपी सत्यका आश्रय ग्रहण करना चाहिये । गुरु

एवं श्रेष्ठ जनोंकी पूजामें इन्द्रिय -निग्रह एवं समाहितचित्तताका

विशेष ध्यान रखना चाहिये । दान देते समय मृदुताका आश्रय

ग्रहण करना चाहिये। थोड़े-से भी हुए निन्द कर्मको बहुत बड़ा

अपराध समझकर सर्वथा उससे विरत रहना चाहिये' ।

१-तमुबाच मुनिर्धीमान्‌._ दयाधर्मप्रपोषणम्‌ | निर्भवस्य समै दाने न भूतै न भविष्यति ॥

← पिछला
अगला →