ऐश्वर्यका पूजन करे। पूर्व आदि मुख्य दिशाओंमें
अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्यकी अर्चना
करे।* पीठके मध्य भागमें सत्त्वादि गुणोंका,
कमलका, माया और अविद्या नामक तत्त्वोंका,
कालतत्त्वका, सूर्यादि-मण्डलका तथा पक्षिराज
गरुडका पूजन करे। पीठके वायव्यकोणसे ईशान-
कोणतक गुरुपंक्तिकी पूजा करे॥ ३८--४५॥
गण, सरस्वती, नारद, नलकूबर, गुरु, गुरुपादुका,
परम गुरु और उनकी पादुकाकी पूजा ही
गुरुपंक्तिकी पूजा है । पूर्वसिद्ध और परसिद्ध
शक्तियोंकी केसरोंमें पूजा करनी चाहिये । पूर्वसिद्ध
शक्तियां ये हैँ - लक्ष्मी, सरस्वती, प्रीति, कीर्ति,
शान्ति, कान्ति, पुष्टि तथा तुष्टि। इनकी क्रमशः
पूर्वं आदि दिशाओंमें पूजा की जानी चाहिये।
इसी तरह इन्द्र आदि दस दिक्पालोंका भी उनकी
दिशाओंमें पूजन आवश्यक है। इन सबके बीचमें
श्री, रति तथा कान्ति आदि हैं। मूल-मन्त्रसे
भगवान् अच्युतकी स्थापना की जाती है । पूजाके
प्रारम्भमें भगवानूसे यों प्रार्थना करे--' हे भगवन्!
आप मेरे सम्मुख हों । ( ॐ अभिमुखो भव। ) पूर्व
दिशामें मेरे समीप स्थित हों।' इस तरह प्रार्थना
करके स्थापनाके पश्चात् अर्य -पाद्य आदि निवेदन
कर गन्ध आदि उपचारोंद्वारा मूल-मन्त्रसे भगवान्
अच्युतकी अर्चना करे । ॐ भीषय भीषय हृदयाय
नमः। ॐ त्रासय त्रासय शिरसे नमः। ॐ मर्दय
मर्दय शिखायै नमः। ॐ रक्ष रक्ष नेत्रत्रयाय नमः।
ॐ> प्रध्वंसय प्रध्वंसय कवचाय नमः। ॐ हूं फट्
अस्त्राय नपः। इस प्रकार अग्निकोण आदि
दिशाओं क्रमसे मूलबीजद्वारा अज्ञोंका पूजन
करे ॥ ४६--५१॥
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें
* आधारशक्ति ऊुर्मरूपा शिलापर विराजमान है। गोदुग्धके समान धवल उसका गौर कलेवर है और आकृति है।
उसके पूजनका मन्त्र है--' ॐ> हां आधारशक्तये बम: ।' भगवान् अनन्त श्रोहरिफे आसन हैं। उनकी अङ्ग-कान्ति कुन्द, इन्दु (चद्धमा)-
के समान् धवल है; ऊपर उठे नाल-दण्डवाले कमल-मुकुलके सदृश उनकी आकृति है तथा ये ब्रह्मशिलापर आरु हैं। पूजतका मन्व
है-- ॐ> हां अनन्तासनाय तम:।' धर्म आदिके पूजनके मन्त्र यों हैं -' ॐ> हां धर्माय नम:--आग्तेये।', “ ॐ हां ज्ञानाय नम:ः--मैते ।',
“## हां वैराग्याय नमः --वायस्ये ।', ' ॐ हां ऐश्वर्याय तम:--ऐशाने।' ( सोमशम्भु-रचित कर्मकाण्ड-क्रमावली १६१-१६४ के आधारपर)।
इसी तरह * ॐ> हां अधर्माय नम: ।' इत्यादि रूपसे म्नॉंकी ऊहा करके अज्ञानादिकों भी अर्चना करे। शारदाठिलकमें आधारशक्तिका ध्यात
एक देवीके रूपमे बताया गया है। वह कूर्मशिलापर आव् है। उसका मनोहर मुख शरत्कालके चनद्रमाको लब्जित कर रहा है तथा उसने
अपने हापोंमें दो कमल धारण किये हैं। उक्त आधारशक्तिके मस्तकपर् भगवान् कूम विराजमान हैं। उत्की कानि नौली है। ' ॐ हां
कूर्माय नम: ।'-इस मन्जसे उनका भी पूजन करे । कूर्मके ऊपर ब्रह्मशिला (इष्टदेवकी प्रतिमाके नीचेकौ आधारभूता शिला) है, उसपर
कुच्द-सदृश गौर अनन्तदेव विराज रहे हैं। उनके हाथमें चक्र है। (नाभिसे नीचै उनकौ आकृति सर्पवत् है और नाभिसे ऊपर मनुष्ययत् ।)
ये मस्तकपर पृष्वोको धारण करते हैं। इस झाँकीमें पूर्वो मनद्वारा उनकौ पूजा करके उनके सिरपर विराजमान भूदेवोका ध्यान और
पूजन करे। ' वे तम्पलके समान स्यामवर्णा हैं। हार्थो नील कमल धारण करती हैं। उनके कटिप्रदेशमें सागरमदी मेखला स्फुरित हो रही
है।” (*ॐ> हां यसुधायै नम: ।', * 35 हाँ सागराय नमः ।'-- इससे पृथ्वी तथा समुद्रकी पूजा करके) उसके ऊपर रत्नमय द्वौपका, उस ट्वीपमें
मणिमय मण्डपका तथा वहाँ शोभा पानेवाले वाउ्छापूरक कल्पवृक्षोंका चिन्तन और पूजन करना चाहिये। उन कल्पवृश्चोंके नीये
मणिमय येदिकाका ध्यान करे। उक्त वेदीपर योगपौठ स्थापित है। उस पौठके जो पाये हैं, वे हो धर्म आदि रूप हैं। इनमें धर्म लाल, ज्ञान
श्याम, वैराग्य हरिद्रातुल्य पौत तथा ऐश्वर्य नील है! धर्मकौ आकृति वृषधके समान् है। ज्ञान सिंहके, चैराण्य भूतके तथा ऐश्वर्य हाथीके
रूपमें विराजमान है। कोणोंमें धर्मादिका और दिशाओंमें अधर्मादिका पूजन करनेके अनन्तर पीठस्थित कमलका ध्यान करे। वह तोन
प्रकारका है--पहला आनन्दकन्द, दूसरा संविन्नाल और तीसरा सर्यतत्वात्मक है । इस प्रिविध कमलका पूजन करके साधक प्रकृतिमय
दलोंका, बिकृतिमय केसरोंका तथा पचास अक्षरोंसे युक्त कर्णिकाका पूजन करे। तत्पक्चात् कलाओंसहित सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमण्डलका
पूजन करे। कमलादिके पूजनका मन्त्र यों समझना चाहिये--' ओनन्दकन्दाय संवित्रालाय सर्वतत्वात्पफाय कमलाय नम: ।', 'प्रकृतिमवदलेभ्यो
जम: ।', 'एिकृतिमयकेसरेभ्यो नमः ।', 'ट्रादत्कलात्मकसूर्यमण्डलाय नम: ।', 'चोडशकलात्मकचद्रमण्डलाय नम: ।', 'दशकलात्मकबड़िमण्डलाय
नम: ।' (शारदातिलक, चतुर्थं पटल ५६- ६६)