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अध्याय १४]

न॒ लड्डयेत्पुरीषासृकक्रीबनोद्वर्तानि च।

गृहादुच्छिष्टविष्मृत्रे पादाम्भांसि क्षिपेद बहिः ॥ ७८

पञपिण्डाननुदधृत्य न स्नायात्‌ परवारिणि।

स्नायीत देवखातेषु सरोहृदसरित्सु च ॥ ७९

नोद्यानादौ विकालेषु प्रा्ञस्तिषटेत्‌ कदाचन ।

नालपेज्जनविद्विष्टं वीरहीनां तथा स्त्रियम्‌॥ ८०

देवतापितृसच्छास्त्रयज्ञवेदादिनिन्दकैः ।

कृत्वा तु स्पर्शमालापं शुद्धयते कर्मावलोकनात्‌॥ ८१

अभोज्याः सूतिकाषण्ठमार्जाराखुश्चकुक्कुटाः।

पतितापविद्धनग्रा्चाण्डालाधमाश्च ये॥८२

सुकेशिस्वाच

भवद्धि: कीर्तिताऽभोज्या य एते सूतिकादय: ।

अमीषां श्रोतुमिच्छामि तत्वतो लक्षणानि हि॥ ८३

ऋषय जवः

ब्राह्मणी ब्राह्मणस्यैव याऽवरोधत्वमागता।

तावुभौ सूतिकेत्युक्तौ तयोरन्नं विगर्हितम्‌ ॥ ८४

न जुहोत्युचिते काले न स्नाति न ददाति च।

पितृदेवार्चनाद्धीनः स षण्डः परिगीयते॥ ८५

दम्भार्थं जपते यश्च तप्यते यजते तथा।

न परतरार्थमुदयुक्तो स॒ मार्जारः प्रकीर्तितः॥ ८६

विभवे सति नैवात्ति न ददाति जुहोति च।

तमाहुराखुं तस्यानं भुक्त्वा कृच्छेण शुद्धधति॥ ८७

* दशाङ्ग धर्मं, आश्रम-धर्म और सदाच्ार-स्वरूपका वर्णन *

६९

उल्लङ्खन नहीं करना चाहिये। जूठे पदार्थ, विष्ठा, मूत्र

एवं पैर धोनेके जलको घरसे बाहर फेंक देना चाहिये ।

दूसरेके द्वारा निर्मित बावली आदिमे मिट्टीके पाँच

डुकड़ोंके निकाले बिना स्नान नहीं करना चाहिये।

(मुख्यतः) देव-निर्मित झीलोंमें, ताल-तलैयों और

नदियों स्नान करना चाहिये ॥ ७६--७९॥

जुद्धिमान्‌ पुरुष बाग-बगीचोंमें असमयमें कभी न

उहरे। लोगोंसे देष रखनेवाले व्यक्ति तथा पति-पुत्रसे

रहित स्थत्रीसे यार्तालाप नहीं करना चाहिये। देवता,

पितरो, भले शास्त्रों (पुराण, धर्मशास्त्र, रामायण

आदि), यज्ञ एवं वेदादिके निन्दर्कोका स्पर्श और

उनके साथ वार्तालाप करनेपर मनुष्य अपवित्र हो

जाता है, वह सूर्यदर्शन करनेपर शुद्ध होता है। उसको

शुद्धि भगवान्‌ सूर्यके समक्ष उपस्थान करके अपने

किये हुए स्पर्श और वार्तालाप कर्मके त्याग तथा

पश्चात्ताप करनेसे होती है। सूतिक, नपुंसक, बिलाव,

चूहा, कुत्ते, मूर, पतित, नग्न (विधर्मी) (इनके लक्षण

आगे बतलाये जा्यंगे) समाजसे बहिष्कृत और जो

चाण्डाल आदि अधम प्राणी हैं उनके यहाँ भोजन नहीं

करना चाहिये ॥ ८०--८२॥

सुकेशि बोला-- ऋषियो! आप लोगोंने जिन

सूतिक आदिका अनन अभक्ष्य कहा है, मैं उनके लक्षण

विस्तारसे सुनना चाहता हूं ॥ ८३॥

ऋषियोने कहा -- सुकेशि! अन्य ब्राह्मणके साथ

ब्राह्मणीके व्यभिचरित होनेपर उन दोनोंको ही 'सूतिक'

कहा जाता है । उन दोर्नोका अनन निन्दित है। उचित

समयपर हवन, स्नान और दान न करनेवाला तथा पितरों

एवं देवताओंकौ पूजासे रहित व्यक्तिको ही यहाँ ' षष्ट '

या नपुंसक कहा गया है । दम्भके लिये जप, तप और

यज्ञ करनेवाले तथा परलोकार्च उद्योग न करनेवाले

व्यक्तिको यहाँ “ मार्जार" या 'बिलाव' कहा गया है।

ऐश्वर्य रहते हुए भोग, दान एवं हवन न करनेवालेकों

"आखु" (चूहा) कहते हैं। उसका अन खानेपर मनुष्य

कृच्छरव्रत करनेसे शुद्ध होता है॥ ८४--८७ ॥

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