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आ० १५ ]

औमैफ्रेय उवाच

देवानां दानवानां च गन्धर्वोरिगरक्चसाप्‌ ।

उत्पत्ति विस्तरेणेह मम ब्रह्मन्प्रकीत्तय ॥ ८५

श्रीपराशर उवाच

प्रजाः सृजेति व्यादिष्टः पूर्व दक्ष: स्वयम्भुवा ।

यथा ससर्ज भूतानि तथा शृणु महामुने ॥ ८६

मानसान्येव भूतानि पूर्यं॑दक्षोऽसृजक्तदा ।

देवानृषीन्सगन्धवनिसुरान्पन्नगास्तथा ॥ ८७

यदास्य सृजमानस्य न व्यवर्धन्त ता: प्रजाः ।

ततः सञ्िन्त्य स पुनः सृष्टिहेतोः प्रजापति: ॥ ८८

मैथुनेनेव धर्मेण सिसृशूर्विविधाः प्रजाः ।

असिक्रीमावहत्कन्यां वीरणस्य प्रजापतेः ।

सुतं सुतपसा युक्तां महतीं ल्त्रेकधारिणीम्‌ ॥ ८९

अथ पुत्रसहस्राणि वैरुण्यां पञ्च वीर्यवान्‌ ।

असिकन्यां जनयामास सग्हितोः प्रजापतिः ॥ ९०

तान्दृष्ठा नारदो विप्र संविवर्द्धयिषून्रजाः ।

सङ्गम्य प्रियसंवादो देवर्षिरिदमब्रवीत ॥ ९१

हे हर्यश्वा महावीर्याः प्रजा यूयं करिष्यथ ।

ईदृशो दुक्यते यत्नो भवतां श्रूयतामिदम्‌ ॥ ९२

बालिज्ञा बत यूयं वै नास्था जानीत वै भुवः ।

अन्तरूर्ध्वमधश्चैव कथं सुश्चयथ वै प्रजाः ॥ ९३

ऊर्ध्व तिर्यगधश्चैव यदाऽग्रतिहता गतिः ।

तदा कस्माद्धुवो नान्तं सवे द्रक्ष्यथ बालिशाः ॥ ९४

ते तु तद्धनं श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतो दिशम्‌ ।

अद्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः ॥ ९५

हर्यश्रेष्रथ नष्टेषु दक्षः प्राचेतसः पुनः ।

बैरुण्यामथ पुत्राणां सहस्रमसृजत्प्भुः ॥ ९६

विवर्द्धयिषवस्ते तु दाबलाश्वाः प्रजाः पुनः ।

पूर्वोक्तं वचनं ब्रह्न्नारदेनैव नोदिताः ॥ ९७

६९

श्रीपैत्रेयजी जोले--हे ब्रह्मन्‌ ! आप मुझसे देव,

दानस, गन्धर्य, सर्प और राक्षसॉकी उत्पत्ति विस्तारपूर्वक

कहिये ॥ ८.५ ॥

अ्रीपराशरजी खोले--हे महामुने ! स्वयम्भू-

भगवान्‌ बद्याजीको ऐसी आज्ञा होनेपर कि ' तुम प्रजा

उत्पन्न करो' दक्षने पूर्वकालमें जिस प्रकार प्राणियोंकी

रचना की धौ वह सुनो ॥ ८६ ॥ उस समय पहले तो दक्षने

ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंको

ही उत्पन्न किया ॥ ८७॥ इस प्रकार रचना करते हुए

जब उनकी वह प्रजा और न बढ़ी तो उन प्रजापतिने

सृष्टिकी वृद्धिके लिये मनम विचारकर मैथुनर्मसे

जाना प्रकारकी प्रजा उत्पन्न करतेकी इच्छासे वीरण

प्रजापतिकी अति तपस्विनी और त्तरेकधारिणी पुत्री

असिक्रीसे विवाह किया ॥ ८८-८९ ॥

तदनन्तर वीर्यवान्‌ प्रजापति दक्षने सर्गकी वृद्धिके

लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये

॥ ९० ॥ उन्हे प्रजा-वृद्धिके इच्छुक टेख प्रियवादी देवर्षि

नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार कहा--- ॥ ९१ ॥

“हे महापराक्रमी हर्यश्चगण ! आप रोर्गोकी ऐसी चेष्टा

प्रतोत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे, सो मेरा यह

कथन सुनो ॥ ९२ ॥ खेदकी यात है, तुम लोग अभी निरे

अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथियीका मध्य, कर्ध्य

(ऊपरी भाग) और अधः (नीचेका भाग) कुछ भी नहीं

जानते, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो,

तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमे ऊपर नीचे और इधर-उधर

सब ओर अप्रतिहत (बे-रोक-टोक) है; अतः हे

अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस पृथिवीका अन्त क्यों

नहीं देखते 2" ॥ ९३-९४ ॥ नारदजीके ये वचन सुनकर

वे सब भिन्न-भिन्न दिज्ञाऑंको चले गये और सपुद्रमें

जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटतीं उसी प्रकार वे भी

आजतक नहीं लौटे ॥ ९५ ॥

हर्यश्लॉके इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओंके पुत्र

दक्षने बैरुणीसे एक सहस पुत्र और उत्पन्न किये ॥ ९६ ॥

वे दाबल्ताश्चगण भी प्रजा बढ़ानेके इच्छुक हुए, किन्तु हे

व्रह्मन्‌ ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त जाते कह दीं।

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