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सुवर्णमय चतुरस पीठको तथा इन्द्रादि देवताओंको कर दे। इसके बाद ' ॐ हूँ हः फट्‌ हूं शब्दतन्मात्रं

अपने युगल चरणो स्थित देखते हुए उनका

चिन्तन करे। इस प्रकार शुद्ध हुए गन्धतन्मात्रको

रसतन्मात्रे लीन करके उपासक इसी क्रमसे

रसतन्मात्रका रूपतन्मात्रे संहार करे। * ॐ हूं हः

संहरामि नमः।'--इस ` एक उदधातवाक्यसे

शुद्ध स्फटिकके समानः आकाशका नासिकासे

लेकर शिखातकके भागमें चिन्तन करे। फिर

उस शुद्ध हए आकाशका (अहंकारमें) उपसंहार

फट्‌ हुं रसतन्मात्रं संहरामि नमः ।', ' ॐ हूं हः फट्‌ | करे ॥ ३१--२७॥

हूँ रूपतन्मात्रं संहरामि नमः।', ' ॐ हूं हः फट्‌ हूं

स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नम:।', * ॐ हूं हः फट्‌ हूं

शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।' --इन चार उद्घात-

वाक्योका उच्चारण करके जानुसे लेकर नाभितकके | शरीर सूख गया है।

भागको श्वेते कमलसे चिह्नित, शुक्लवर्णं एवं

अर्धचनद्राकार देखे । ध्यानद्वारा यह चिन्तन करे

कि "इस जलीय भागके देवता वरुण हैं।' उक्त

चार उद्घातोंके उच्वारणसे रसतन्मात्राकी शुद्धि

होती है। इसके बाद इस रसतन्मात्राका रूपतन्मात्रामें

लय कर दे॥ २२-३०॥

"ॐ हूं हः फट्‌ हूं रूपतन्मात्रं संहरामि नम: ।!

"ॐ हूं हः फट्‌ हूं स्पर्शतन्मात्रं संहरामि नमः।'

"ॐ हूं हः फट्‌ हूं शब्दतन्मात्रं संहरामि नमः।'

-इन तीन उद्घातवाक्योंका उच्चारण करके

नाभिसे लेकर कण्ठतकके भागमें त्रिकोणाकार

अग्निमण्डलका चिन्तन करे। "उसका रंग लाल

है; वह स्वस्तिकाकार चिहसे चिहित है । उसके

अधिदेवता अग्नि हैं।! इस प्रकार ध्यान करके

शुद्ध किये हुए रूपतन्मात्रको स्पर्शतन्मात्रे लीन

करे। तत्पश्चात्‌ "ॐ हूं हः फद्‌ हूं स्पर्शतन्मात्रं

संहरामि नमः।', "ॐ हूं हः फट्‌ हुं शब्दतन्मात्रं

संहरामि नमः।' -इन दो उदृघातवाक्योकि

उच्वारणपूर्वक कण्ठसे लेकर नासिकाके बीचके

भागे गोलाकार वायुमण्डलका चिन्तन करे--

“उसका रंग धूमके समान है । वह निष्कलङ्क

चन्द्रमासे चिह्नित है।' इस तरह शुद्ध हुए

स्पर्श -तन्मात्रका ध्यानद्वारा ही शब्दतन्मात्रमे लय

तत्पश्चात्‌ क्रमशः शोषण आदिके द्वारा देहकी

शुद्धि करे। ध्यानमें यह देखे कि यं ' बीजरूप

वायुके द्वारा पैरोंसे लेकर शिखातकका सम्पूर्ण

फिर "रं" बीज द्वारा

अग्निको प्रकट करके देखे कि सारा शरीर

अग्निकी ज्वालाओंमें आ गया और जलकर

भस्म हो गया। इसके बाद 'बं” बीजका उच्चारण

करके भावना करे कि ब्रह्मरन्ध्रसे अमृतका बिन्दु

प्रकट हुआ है। उससे जो अमृतकी धारा प्रकट

हुई है, उसने शरीरके उस भस्मको आप्लावित

कर दिया है। तदनन्तर "लं" बीजका उच्चारण

करते हुए यह चिन्तन करे कि उस भस्मसे दिव्य

देहका प्रादुभवि हो गया है। इस प्रकार दिव्य

देहकी उद्धावना करके करन्यास और अङ्गन्यास

करे। इसके बाद मानस-यागका अनुष्ठान करे ।

हदय-कमलमें मानसिक पुष्प आदि उपचारोंद्वारा

मूल-मन्त्रसे अद्ञोंसहित देवेश्वर भगवान्‌ विष्णुका

पूजन करे। वे भगवान्‌ भोग और मोक्ष देनेवाले

हैं। भगवानूसे मानसिक पूजा स्वीकार करनेके

लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये --' देव !

देवेश्वर केशव ! आपका स्वागत है। मेरे निकट

पधारिये और यथार्थरूपसे भावनाद्वारा प्रस्तुत इस

मानसिक पूजाको ग्रहण कीजिये।' योगपीठको

धारण करनेवाली आधारशक्ति कूर्म, अनन्त

(शेषनाग) तथा पृथ्वीका `पीटके मध्यभागर्मे

पूजन करना चाहिये । तदनन्तर अग्निकोण आदि

चारों कोणोंमें क्रमश: धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा

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