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शिव और विष्णुके बीचमें पाशधारी यमदूतकी | दक्षिणा प्रशस्त मानी गयी है । सुवर्णके सिवा,

(स्वर्णादिमयी ) मूर्तियां स्थापित करके यमदूतके

सिरका छेदनं करें; फिर उस मूर्तिमण्डलका

ब्राह्मणको दान कर दे। ऐसा करनेसे दाता तो

स्वर्गलोकका भागी होता है, किंतु इस 'त्रिमुख'

नामक दानको ग्रहण करके द्विज पापका भागी

होता है। चाँदीका चक्र बनवाकर, उसे जलमें

रखकर उसके निमित्तसे होम करे। पश्चात्‌ वह

चक्र ब्राह्मणको दान कर दे। यह महान्‌

*कालचक्रदान' माना गया है॥ १७--२१॥

जो अपने वजनके बराबर लोहेका दान करता

है, वह नरकमें नहीं गिरता। जो पचास पलका

लौहदण्ड वस्त्रसे ढककर ब्राह्मणको दान करता

है, उसे यमदण्डसे भय नहीं होता। दीर्घायुकी

इच्छा रखनेवाला मृत्युज्ञयके उदेश्यसे फल, मूल

एवं द्रव्यको एक साथ अथवा पृथक्‌-पृथक्‌ दान

करे । कृष्णतिलका पुरुष निर्मित करे। उसके

चाँदीके दाँत और सोनेकी आँखें हों। वह

मालाधारी दीर्घाकार पुरुष दाहिने हाथमें खङ्ग

उठाये हुए हो। लाल रंगके वस्त्र धारण किये

जपापुष्पोंसे अलंकृत एवं शङ्कौ मालासे विभूषित

हो। उसके दोनों चरणोंमें पादुकाएँ हों और

पार्श्रभागमें काला कम्बल हो। बह कालपुरुष बारे

हाथमे मांसपिण्ड लिये हो। इस प्रकार कालपुरुषका

निर्माण कर गन्धादि द्रव्योसे उसकी पूजा करके

ब्राह्मणको दान करे । इससे दाता मानव मृत्यु ओर

व्याधिसे रहित होकर राजराजेश्वर होता है।

ब्राह्मणको दो बैलोंका दान देकर मनुष्य भोग

और मोक्षको प्राप्त कर लेता है ॥ २२-२८५॥

जो मनुष्य सुवर्णदान करता है, वह सम्पूर्ण

अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है। सुवर्णके

दानमे उसकी प्रतिष्ठाके लिये चाँदीकी दक्षिणा

विहित है । अन्य दानोंकी प्रतिष्टाके लिये सुवर्णको

* ति:सन्नकुलमुद्धृत्य कन्यादो ब्रह्लोकभाक्‌ ॥(२११। ३७)

4234८. चति कनन # ०७

रजत, ताप्र, तण्डुल ओर धान्य भी दक्षिणाके

लिये विहित है । नित्य श्राद्ध और नित्य देवपूजन -

इन सवर्मे दक्षिणाकी आवश्यकता नहीं रै ।

पितृकार्यमें रजतकी दक्षिणा धर्म, काम और

अर्थको सिद्ध करनेवाली है। भूमिका दान देनेवाला

महाबुद्धिमान्‌ मनुष्य सुवर्ण, रजत, ताप्र, मणि

और मुक्ता--इन सबका दान कर लेता है, अर्थात्‌

इन सभी दानोंका पुण्यफल पा लेता है। जो

पृथ्वीदान करता है, वह शान्त अन्तःकरणवाला

पुरुष पितृलोकमें स्थित पितरोंको और देवलोकमें

निवास करनेवाले देवताओंको पूर्णरूपसे तृप्त कर्‌

देता है। शस्यशाली खर्वट, ग्राम और खेटक

(छोटा गाँव), सौ निवर्तनसे अधिक या उसके

आधे विस्तारमें बने हुए गृह आदि अथवा गोचर्म

(दस निवर्तन)-के मापको भूमिका दान करके

मनुष्य सब कुछ पा लेता है। जिस प्रकार तैल-

बिन्दु जल या भूमिपर गिरकर फैल जाता है,

उसी प्रकार सभी दानोँका फल एक जन्मतक

रहता है। स्वर्ण, भूमि ओर गौरी कन्याके दानका

फल सात जन्मोंतक स्थिर रहता है। कन्यादान

करनेवाला अपनी इक्कीस पोढ़ियोंका नरकसे

उद्धार करके ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।*

दक्षिणासहित हाथीका दान करनेवाला निष्पाप

होकर स्वर्गलोके जाता है। अश्चका दान देकर

मनुष्य दीर्घ आयु, आरोग्य, सौभाग्य और स्वर्गको

प्राप्त कर लेता है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको दासीदान

करनेवाला अप्सराओंके लोकमें जाकर सुखोपभोग

करता है। जो पाँच सौ पल ताँबेकी थाली या ढाई

सौ पल, सवा सौ पल अथवा उसके भी आधे

(६२३) पलोंकी बनी थाली देता है, वह भोग

तथा मोक्षका भागी होता है॥ २९-३९; ॥

बैलोंसे युक्त शकटदान करनलेसे मनुष्य विमानद्वारा

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