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हर ऋग्वेद संहिता धाग - २

२७१९. अभि जैत्रीरसचन्त स्पृधानं महि ज्योतिस्तमसो निरजानन्‌।

तं जानती: प्रत्युदायत्रुषास: पतिर्गवामभवदेक इन्द्रः ॥४॥

शत्रुओं पर हमेशा विजय प्राप्त करने वाले मरुद्‌ गण युद्धरत इन्द्रदेव के साथ जुड़ गये उन्होंने पान्‌ ज्योति

(सूर्य) को गहन तमिला से मुक्त किया. उसे जानकर उषायें भी उदित हुईं । इन सभी क्रियाओं के एक मात्र अधिपति

इन्द्रदेव ही हैं ॥४ ॥

२७२०. वीछौ सतीरभि धीरा अतृन्द्राचाहिन्वन्मनसा सप्त विप्रः ।

विश्वामविन्दन्पथ्यामृतस्य प्रजानन्नित्ता नमसा विवेश ॥५ ॥

बुद्धिमान्‌ और मेधावी सात ऋषियों ने सुदृढ़ पर्वत (विशाल आकार) द्वारा रोकी गई गौ ओं (रश्मि पुञ्ञ) को

देखा । ऊर्ध्वगापौ श्रेष्ठ चिन्तनरत निर्मल मन से उन्होंने यज्ञ के मार्ग का अनुगमन करते हुए, उस रश्मि पुञ्ज को

प्राप्त किया । ऋषियों के इन समस्त कर्मों के द्रष्ट इद्धदेव स्तोत्रों के साथ यज्ञ में प्रविष्ट हुए ॥५ ॥

२७२१. विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेमहि पाथः पूर्व्य सश्चचक्कः।

अग्रं नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवं प्रथमा जानती गात्‌ ॥६ ॥

सरमा ने पर्वतकाय वृत्र (अन्धकार) के भग्न स्वल को जान लिया, तब इन्द्रदेव ने एक सीधा और विस्तृत

पथ विनिर्मित किया । उत्तम पैरों बाली सरमा इद्धदेव को उस पथ पर आगे ले गई । पर्वत में असुर द्वारा छिपाई

गई गौ ओं (प्रकाश किरणों) के शब्द को सर्वप्रथम सुनकर सरमा ने इन्द्रदेव के साथ उनको प्राप्त किया ॥६ ॥

२७२२. अगच्छद्‌ विप्रतमः सखीयत्नसूदयत्सुकृते गर्भमद्रि: ।

ससान मर्यो युवभिर्मखस्यत्नथाभवददङ्धिराः सद्यो अर्चन्‌ ।।७ ॥

श्रेष्ठतम ज्ञानी और उत्तम कर्मा इन्द्रदेव अंगिराओ कौ मित्रता की इच्छा से पर्वत के समीप पहुँचे ।

पर्वताकार असुर ने अपने गर्भ में छिपी गौओं (किरणों) को प्रकर किया । इन्द्रदेव ने मरुतो कौ सहायता से युद्ध

करके शत्रुओं को मारते हुए गौ ओं (किरणों) को प्राप्त किया । तदनन्तर अंगिराओं ने इन्द्रदेव की शीघ्र ही अर्चना

प्रारम्भ की ॥७ ॥

२७२३. सतः सतः प्रतिमानं पुरोभूर्विश्चा वेद जनिमा हन्ति शुष्णम्‌।

प्र णो दिवः पदवीर्गव्युर्चन्त्सखा सखींरमुज्चन्निरवद्यात्‌ ॥८ ॥

शुष्णासुर का वध करने वाले, युद्धो ये अग्रणी रहकर सेना का नेतृत्व करने वाते इन्द्रदेव, उत्पन्न होने वाले

समस्त पदार्थों को जानते हुए उनका प्रतिनिधित्व करते हैं । ऐसे सन्पार्गगामी और गो द्रव्य अभिलाषो इन्द्रदेव

मित्ररूप पूजनीय होकर द्युलोक से हम मित्रों को पाप से छुड़ायें ॥८ ॥

२७२४ नि गव्यता मनसा सेदुरकैं: कृण्वानासो अमृतत्वाय गातुम्‌ ।

इदं चिन्नु सदने भूरयेषां येन मासां असिषासन्चृतेन ॥९ ॥

अंगिरावंशी ऋषिगण ज्ञान प्राप्ति की अभिलाषा करते हुए यज्ञ में प्रवृत्त हुए । उन्होंने यज्ञ में बैठकर स्तो

से अमरता प्राप्त करने के लिए उपाय किया । यह यज्ञ उनका वह विस्तृत स्थान है, जिसके माध्यम से उन्होने

महीनों का विभाजन किया ॥९ ॥

[ ऋषियों ने ज्वोतिर्विज्ञान- अध्ययने सम्बन्धी शोय करके, यज्ञ के माध्यम से १२ राशियों को खोजकर उनके आधार पर

यासो का वर्गीकरण किया। ]

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