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युक्त यमराजको देखता है। विशाल दाँतोंसे उनका मुखमण्डल

बड़ा ही भयानक लगता है। उनकी ध्रू-भंगिमाएँ तनी रहती

हैं, जिससे उनकी आकृति भयानक प्रतीत होती है। अत्यन्त

विकृत मुखाकृतियोंसे युक्त सैकड़ों व्याधियाँ उनको चारों

ओरसे घेरे रहती हैं। उनके एक हाथमे दण्ड और दूसरे

हाथमें भैरव-पाश रहता है।

यमलोकमें पहुँचा हुआ जीव यमके द्वारा बतायी गयी

शुभाशुभ गतिको प्राप्त करता है। जैसा मैंने तुमसे पहले

कहा है, उसी प्रकारकी पापात्मक गति पापौ जीवको

प्राप्त होती है। जो लोग छत्र, पादुका और घरका दान देते

हैं, जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, वे बहाँपर पहुँचकर सौम्य

स्वरूपवाले, कानॉमें कुण्डल और सिरपर मुकुट धारण

किये हुए शोधासम्पन यमराजका दर्शन करते हैं।

चूँकि वहाँ जीवको बहुत भूख लगती है, इसलिये

एकादशाह, द्वादशाह, षण्मास तथा वार्षिक तिथिपर बहुत-

से ब्राह्मणोंकों भोजन कराना चाहिये। हे खगश्रेष्ठ! जो व्यक्ति

पुत्र, स्त्री तथा अन्य सगे-सम्बन्धियोंके द्वारा कहे गये उनके

स्वार्थको हौ जीवनपर्यन्त सिद्ध करता है और अपने

परलोकको बनानेके लिये पुण्यकर्म नहीं करता, वहीं

अन्तर्मे कष्ट प्राप्त करता है।

है गरुड! मृत्युके पश्चात्‌ संयमनीपुरको जानेवाले

प्राणीकौ जो गति होती है और वर्षपर्यन्त जो कृत्य

किये जाते हैं, उसको मैंने कहा। अब और क्या सुनना

चाहते हो? (अध्याय ५)

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वृषोत्सर्गकी महिमामें राजा वीरवाहनकी कथा, देवर्षि नारदके पूर्वजन्मके

इतिहासवर्णनमें सत्संगति ओर भगवद्धक्तिका माहात्म्य, वृषोत्सर्गके

प्रभावसे राजा वीरवाहनको पुण्यलोककी प्राप्ति

गरुडने कहा--हे प्रभो! जो तीर्थ-सेवन और दानमें

निरन्तर लगा है तथा अन्य साधनोंसे भी सम्पन है, उसे

भी वृषोत्सर्ग किये बिता परलोकमें सद्गति नहीं प्राप्त होती।

इसलिये मनुष्यको वृषोत्सर्ग अवश्य करना चाहिये। ऐसा

मैंने आपसे सुन लिया। इस यृषोत्सर्गका फल क्या है?

प्राचीन समयमें इस यको किसने किया? इसमें किस

प्रकारका वृष होना चाहिये? विशेष रूपसे इस कार्यको

किस समय करना चाहिये और इसको करनेकी कौन-सी

विधि बतायी गयी है? यह सब बतानेकी कृषा करें।

श्रीकृष्णने कहा--है खगेश्वर! मैं उस महापुण्यशाली

इतिहासका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका वर्णन ब्रह्माके पुत्र

महर्षि वसिष्ठने राजा वीरवाहनसे किया था।

प्राचीन समयकी बात है, विराधनगरमें बीरवाहन

नामक एक धर्मात्मा, सत्यवादी, दानशील और विप्रॉको

संतुष्ट करनेवाले राजा रहते थे। किसी समय वे शिकार

खेलनेके लिये वनमें गये। कुछ पूछनेकी जिज्ञासासे ये

वसिष्ठमुनिके आश्रममें जा पहुँचे। वहाँ आसन ग्रहण कर

विनग्रतासे झुके हुए राजाने ऋषियोंकी संसदमें मुनिको

नमस्कार करके पूछा।

राजाने कहा-हे मुने! मैंने यथाशक्ति प्रयत्रपूर्वक

अनेक धार्मिक कृत्य किये हैं, फिर भी यमराजके कठोर

शासनको सुनकर मैं हदय्मे बहुत ही भयभीत हूँ। हे

कृपानिधान! महाभाग! ऋषिवर! मुझे यम, यमदूत और

देखनेमें अतिशय भयंकर लगनेवाले नरकलोकॉकों न

देखना पड़े, ऐसा कोई उपाय बतानेकी कृपा करें।

वसिष्ठने कहा--हे राजन्‌! शास्त्रवेत्ता अनेक प्रकारके

धर्मोंका वर्णन करते हैं, किंतु कर्म॑मार्गसे विमोहित जन

सूक्ष्मतया उनको नहीं जानते। दान, तीर्थ, तपस्या, यज्ञ,

संन्यास तथा पितृक्रिया आदि सभी धर्म हैं, उन धर्मम भी

वृषोत्सर्गका विशेष महत्त्व है । मनुष्यको बहुत-से पुत्रोकी

अभिलाषा करनी चाहिये । यदि उनमेंसे एक भी पुत्र गया-

तीर्थे जाय, अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नील वृषभ यधाविधि

छोड़े तो जाने-अनजाने किये गये ब्रह्महत्या आदि पाप भी

विनष्ट हो जाते है । यह शुद्धिं नील वर्णके वृषभका उत्सर्ग

अथवा समुद्रम स्नान करनेसे भी हो सकती है । हे राजेन्द्र!

जिसके एकादशाहे वृषोत्सर्ग नहीं होता, उसका प्रेतत्व

स्थिर हौ रहता है। मात्र श्राद्ध करनेसे क्या लाभ होगा?

जिस-किसी भाँति नगर अथवा तीर्थे वृषोत्सर्ग अवश्य

करना चाहिये ।

हे खगेश! वृष-यज्ञके द्वारा प्रेतत्वसे मुक्ति प्राप्त होती

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