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पतिशिप्ट-ड ॥१.

है । शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वर्षा से सम्बद्ध किया गया है-- वर्षा उद्गाता तस्माद्‌ यदा बलवद्‌ कति साम्न इवोपष्दः क्रियते

(शत ११२४७३२)। । पर्जन्यो वा उद्ाता (शत० ब्रा १२१ १०)।

१८. उपभृत्‌ --यह जुहू के नाप और आकार को अश्चत्थ (पीपल काष्ठ की बनी एक सुची है । जुद्ू का आज्य समाप्त होने पर इसके

आन्य को जुहू में लेकर आहुति दी जाती है-- आक्रष््युपभृत्‌ (का० श्रो० १३३६)। आज्यस्थाली में से चार सुवा आज्य जुहू

में, आठ खुवा उपभूत्‌ में और चार सुवा परवा में रखने का विधान है । ज्‌ के उत्तमे उपभृत्‌ ओर उसके उत्तर में रषा पात्र रखे

जाते हैं। 'वाचस्पत्यम्‌' में भी इसे एक सुचि भेद कहा गया है- आत्वे यज्ाइपात्रभेटे खुचि (वा० पृष्ठ १२३३) | पाणिध्या

जुहु परिगृष्नोपभृत्या बानप्‌ (आश्व० गृ० ११० ९)।

१९. उपयमनी- उपयमनी अग्नि प्रस्थापन करने का मिट्टी का एक पात्र है । चादुर्मास्य याग में अध्वर्य और प्रतिप्रस्थाता गार्हपत्य

अगिन से इन पा मे अग्नि निकालकर उत्तस्वेदी और आदवनीय में अग्नि का प्रस्थापन करते हैं । जुर्‌ से बड़े आकार कौ एक

सुची भौ उपयमनी कहलातौ दै । उपयमनी से घर्मपात्र में आज्य लेने को कहा गया है--उप्यमन्यासिज्वति घे (क श्रौ

२६६.१)। वाचस्पत्यम्‌ में इसका सम्बन्ध अग्याधान से बताया गया है- अम्याधानाद्गे सिकतादौ (वा& ए १२८२)।

उपयमनीरुपकल्पवन्ति (तव ग्रा० ३५.२.१) । उपयमनीरुपनिक्पति (का० श्रो” ५.४.१८) ।

२०. उपयाम --'उपयाम' याग छा काष्ठ निर्मित एक ग्रह पात्र दै, जो सोम आदि दरव रखने के उपयोग में आता है--

यजाड़े गरहरूये पात्रपेदे (वा० ए १२८३) यजुवैद मे उपयाम शब्द्‌ अनेक बार उल्लिखित हुआ है-- उपया गृहीतोउसि (यजुः

७:४) । वात॑ प्राणेनापानेन नासिके उपयाधमधोण... (यजु० २५२) | यहों तथ्य संहिता मे भी उल्लिखित है-- उपयापपथरेणौष्ठेन

(पित्रा सं० ३१५२) ।

२१. उपवेष (धृष्टि) --यह यज्ञ का एक काष्ठ पात्र है। इसका आकार आग से पंजे का और पीछे डंडे जैसा तथा नाप में एक हाथ

लम्बा होता है। अग्निहोत्री इसका उपयोग "खर" की आन को इधर-उधर हटने में करते हैं-- अङ्गार विभजनाथें काष्ठे (वा,

पृ० १३३०)। इसे धृष्टि भी कहते हैं-- स उपवेषमाद्ते धृष्टिसीति (शठ० व्रा १.२१ ३)। प्ृष्टिस्सी त्युपतेषमादायापास

इत्यझ्रान्‌ प्रा करोति (का श्रौ २.४.२५) । उपवेषोऽङगारापोहन समर्थ हस्ताकृति काष्ठम्‌ (का० श्रौ २.४.२५ क भा०)।

पलाश शाखा के मूल को काटकर उपवेष निर्माण करने को कहा गया है-- मूलादुफ्वेष॑ करोति (का० श्रौ ४२.१२) ।

२२. उपसर्जनी- तोये को जिस बटलोई भे याग के लिए जल लिया जाता है,जल सहित वह पात्र उपसर्जनी कहलाता है । उपसर्जनी

(जलपात्र) को गार्हपत्य अग्नि पर तपाना उपसर्जनी अधिश्रयण कहलाता है-- उपसर्जनीरधिश्रयति (का श्र २:५:५)। इसके

बाद इसे अध्वर्यु के निकट लाने को कह्य गया है-- उपसर्जनी रानयत्यन्यः (का० श्रौ७ २५१२)।

२३. उपांशु (ग्रह) --जिन पात्रों को हाथ में लेकर यज्ञ कार्य सम्पन्न किया जाता है, उन्हें ग्रह कहते हैं-- तदेन॑ पतवयवगृहणत

तस्मादग़हा नाम (शात ब्रा० ४१३ /५)। अध्वर्यु उपांशु ग्रह से याज्षिक कार्य (सोमाहुति) करते हैं--उपांशु यजुषा... (मैत्रा० सं०

३६.५)। ठपांशु ग्रह को मंत्र से शुद्ध करके हवन करना चाहिए--उत्तरादुपांशु जुहुयात्‌... (कपि० क० सं० ४२ १)। याग के बाद

भौ उसका सम्मार्जन किया जाता है--उपाशुगह हतवा पात्रमार्जन कुर्यान्‌ (वनु ७३ महौ० भा) । उपांशु सवन बद्ध) को उपा

(ग्रह) के निकर रखा गाता है ।

२४. उलूखल --उलूखल हवि रूप द्रव्य पदार्ष को कूटने का एक काष्ट पात्र है । पुरोडाश निर्माण के निमित्त जौ या ब्रीहि भी इसी

से कूटा जाता है-- धान्यादिकण्डनसाथने काष्टमये पात्रे तत्व यज्ियपात्रथेद (वा पृ० १३७०)। कात्यायन श्रौत सूत्र में

उलूखल-मुसल का उल्लेख मिलता है-- उलूखलपुसले स्वयमातृण्णामुत्तेणारलिमात्रे3 औदप्बरे प्रादेश पात्र चतुरग्पुलूखल॑

परध्यसड्गृहीतपूर्द कृत (का श्रो” १७५३)। अशचेलृखलमुसलेऽ उपदधाति (शत ब्रा ७५.१.९२) ।

२५. कऋ्तुग्रह - अग्निष्टोम याग में ऋतुप्ह़ नामक उपयाम पात्र का समानयन किया जाता है । ऋतुगरह से सोम रसाहुति दी जाती

है । इस कार्य के इत्विज्‌ ,अध्वर्यु और प्रतिप्रस्थाता होते हैं । ऋतु ओं की संख्या बारह है, अतएव ऋतुग्रह से बारह सोम आहुतियां

समर्पित की जाती है ऋतु ब्रत ..(का० श्रौ” ९ १३.१) | द्वादश वै मासाः संयत्पास्य तस्मात्‌ द्वादशगृहणीयात्‌ (शद ब्रा»

४२.१५५) ऋतु गृह से प्रात: सवन में आदुतियों का विधान है-- ऋ़ुप्रहै: प्रातः सवनपूतुमत्‌ मित्र सं ४६.८) । ऋतुगढ़ों की

उत्पत्ति सोम-पानक इनदर के साथ हुई, बताया गया है-- सोषपा इन््रम्य सजाता यद्‌ ऋतुग्रह्म (कपि० क सं० ४४२) । ऋतुप्रह

पात्र से आहुति देने पर प्राणियों की वृद्धि होना बताया गया है-- ऋतुपत्मेवाप्वेकशफं प्रजायते (रात, ब्रा ४५ ५.८)।

२६. करम्भपात्र चातुर्मास्य याग में प्रतिप्रस्थाता जौ के आटे का करम्भपात्र बनाता है। इसका आकार डमरू जैसा और नाप

अंगुष्ठ पर्व जितना होता है । इनकी संख्या यजमान कौ प्रजा {सन्तान से एक अधिक रखी जाती है-- तेषा करप्मपात्नणि कुर्बीसि

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