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आपको नमस्कार है। आप मेरी रक्षा कीजिये! ।
इस प्रकार स्तुति करनेपर प्रणतजनँपर दया
करनेवाले शङ्ख, शक्र ओर गदाधारी भगवान्
विष्णु शुकदेवजौसे इस प्रकार बोले।
श्रीभगवानने कहा--उत्तम व्रतका पालन कलेवाले
महाभाग व्यासपुत्र! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें विद्या
और भक्ति दोनों प्राप्त हों। तुम ज्ञानी और साक्षात् मेरे
स्वरूप हो | ब्रह्मन्! तुमने पहले श्रेतद्वीपमें जो मेरा स्वरूप
देखा है, वह मैं ही हूँ। सम्पूर्ण विश्वकी रक्षके लिये मैं वहाँ
स्थित हूँ। मेरा वही स्वरूप भिन्न-भिन्न अवतार धारण
करनेके लिये जाता है। महाभाग ! मोक्षधर्मका निरन्तर
चिन्तन कलेसे तुम सिद्ध हो गये हो। जैसे वायु तथा सूर्य
आकाशमें विचरण करते हैं, उसी प्रकार तुम भी समस्त
रेष्ठ लोकमि भ्रमण कर सकते हो। तुम नित्य मुक्तस्वरूप
हो। मैं हो सबको शरण देनेवाला हूं। संसारम मेरे प्रति
भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है। उस भक्तिको प्राप्त कर लेनेपर
और कुछ पाना शेष नहीं रहता। (वह तुमको प्राप्त हो
गयी) बदच्कित्रमर्मे नर-नाक्यण ऋषि कल्पान्त
लिये तपस्या स्थित हैं। उनकी आज्ञासे उत्तम ब्रतका
पालन करनेवाले तुम्हारे पिता व्यास भागवत्-शाखका
संक्षिप्त नारदपुराण
सम्पादन कंशि। अतः तुम पृथ्वीपर जाओ और उस
शास्त्रका अध्ययन कये। इस समय वे गन्धमादन पर्वतपर्
पिताके समीप लौट गये। तदनन्तर शुकदेवको अपने
निकर देख परम प्रतापी पराशरनन्दन भगवान् व्यासका
मन प्रसन्न हो गया । वे पुत्रकौ पाकर तपस्यासे निवृत्त
हो गये। फिर भगवान् नासयण और नरश्रेष्ठ नरको
नमस्कार करके शुकदेवजीके साथ अपने आश्रमपर
आये। मुनीश्वर नारद ! तुम्हारे मुखसे भगवान् नागयणका
आदेश पाकर उन्होंने अनेक प्रकारके शुभ उपाख्यानोंसे
युक्त दिव्य भागवतसंहिता बनायी, जो बेदके तुल्य
माननीय तथा भगवद्धक्तिको बढ़ानेवाली है। व्यासजीने
बह संहिता अपने निवृत्तिपरायण पुत्र शुकदेवको
पढ़ायी। व्यासनन्दन भगवान् शुकं यद्यपि आत्माराम
हैं तथापि उन्होंने भक्तोंको सदा प्रिय लगनेवाली उस
कालतकके | संहिताका बड़े उत्साहसे अध्ययन किया । अनघ! इस
प्रकार ये मोक्षधर्म बतलाये गये, जो पाठकों और
श्रोताओकि हृदयमें भगवान्की भक्ति बढ़ानेवाले हैं।
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१. शान्तं प्रसन्नवदनं
वक्षःस्थलस्थया लक्ष्म्या कौस्तुभेन
भ्राजत्किरीरवलयं
तं दृष्टा भक्तिभावेन
जगद्रीजस्वरूपाय
हंसाय मत्स्यरूपाय
चतुःसनाय कूर्माय
भागविनद्रायं रामाय
चतुर्व्यूहाय
राघवाय
विश्वरूपाय
आदित्यसोमनेत्राय
श्रीशाय
बृहदारण्यवेद्याय
गोविन्दाय जगत्कर्त्रे
अधोक्षजाय धर्माय
विरिञ्चये त्रिककुदे
वृषाकपय ऋद्धाय
निरज्ञनाय नित्याय
सहओजोबलाय
हृषीकेशाय
जगन्नाथाय
६ शान्तं प्रसन्नवदनं पौतकौशेयवाससम् । शङ्खचक्रगदापदीूरतिद्धिरुपासितम् ॥
श्रीनिवासाय भक्तवश्याय शार्ङ्िणे । अष्टप्रकृत्यधीशाय
वेधसे । पुण्डरौकनिभाक्षाय
योगिने । स्त्याय सत्यसंधाय वैकुष्ठायाच्युताय च ॥
वामनाय त्रिधातवे । धृतार्चिषे विष्णवे तेऽनन्ताय कपिलाय च॥
ऋग्यजुःसामरूपिणे । एकश्ृज्जाय
प्रभवे विश्वकर्मणे । भूरभुवःस्वःस्वरूपाय
हयव्ययायाक्षराय च । नमस्ते पाहि मामीश शरणागतवत्सल ॥
मणिनृपुरशोभितम्। सवत्व अल सिद्धनिकौ: ॥
तुष्टाव मधुसूदनम् । नमस्ते
निभृतात्मने । हरये
वाराहतनुधारिणे । नृसिंहाय
पृथये स्वसुखात्मने । नाभेयाय जगद्धात्रे विधात्रेऽन्तकराय च॥
पराय च
वेद्याय ध्येयाय परमात्मने । नरनारायणाख्याय शिपिविष्टाय विच्णवे॥
ऋतधाम्ने विधाम्ने च सुपर्णयि स्वरोचिषे । ऋभवे सुधाम्ने
विश्वाय. सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे । यज्ञाय यज्ञभोक्त्रे च स्थविष्ठायाणवेऽधिने ॥
च। ईज्याय साक्षिणेऽजाय बहुशोर्षाडप्रिबाहवे ॥
। कृष्णाय वेदकर्त्ने च बुद्धकल्किस्वरूपिणे ॥
सुब्रताख्याय चाजिताय च॥
ब्रह्मणे5 नन्तशक्तये ॥
त्राय विभासिने॥
च श्रवसे शास्त्रयोनये ॥
निर्गुणाय च॥
(ना० पूर्व ६२। ४७-६५)