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पालन करनेसे ही धर्मका अनुष्ठान होता है)।

निर्मलीका फल यद्यपि पानीमें पड़नेपर उसे

स्वच्छ बनानेवाला है, तथापि केबल उसका नाम

लेनेमात्रसे जल स्वच्छ नहीं हो जाता। इसी प्रकार

आश्रमके लिङ्ग धारणमात्रसे लाभ नहीं होता,

विहित धर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। अज्ञानवश

संसार-बन्धनमें बंधा हुआ द्विज लँगड़ा, लूला,

अंधा और बहरा क्‍यों न हो, यदि कुटिलतारहित

संन्यासी हो जाय तो वह सत्‌ और असत्‌-

सबसे मुक्त हो जाता है । संन्यासी दिन या रातमें

चिना जाने जिन जीवोंकी हिंसा करता है, उनके

वधरूप पापसे शुद्ध होनेके लिये वह स्नान करके

छः बार प्राणायाम करे। यह शरीररूपी गृह

हड्डीरूपी खंभोंसे युक्त है, नाडोरूप रस्सियोंसे

बधा हुआ है, मांस तथा रक्तसे लिपा हुआ और

चमड़ेसे छाया गया है। यह मल और मूत्रसे भरा

हुआ होनेके कारण अत्यन्त दुरगन्धपूर्णं है। इसमें

बुढ़ापा तथा शोक व्याप्त हैं। यह अनेक रोगोंका

घर और भूख-प्याससे आतुर रहनेवाला है। इसमें

रजोगुणका प्रभाव अधिक है। यह अनित्य--

विनाशशील एवं पृथिवी आदि पाँच भूतोंका

निवास-स्थान है; विद्वान्‌ पुरुष इसे त्याग दे-

अर्थात्‌ ऐसा प्रयल करे, जिससे फिर देहके

बन्धनमें न आना पड़े॥ ११-१६॥

धृति, क्षमा, दम (मनोनिग्रह), चोरी न

करना, बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, इन्द्रियोंको

बशमें रखना, लज्जा*, विद्या, सत्य तथा अक्रोध

(क्रोध न करना)--ये धर्मके दस लक्षण हैं।

संन्यासी चार प्रकारके होते हैं--कुटीचक, बहूदक,

हंस ओर परमहंस । इनमें जो-जो पिछला है, वह

पहलेकी अपेक्षा उत्तम है । योगयुक्त संन्यासी पुरुष

एकदण्डी हो या त्रिदण्डी, वह बन्धनसे मुक्त

हो जाता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरीका

अभाव), ब्रह्मचर्य ओौर अपरिग्रह (संग्रह न

रखना) -ये पाँच यम ' हैं। शौच, संतोष, तप,

स्वाध्याय और ईश्चस्की आराधना-ये पाँच ' नियम'

है । योगयुक्त संन्यासीके लिये इन सबका पालन

आवश्यक है। पद्मासन आदि आसनोंसे उसको

बैठना चाहिये ॥ १७--२० ॥

प्राणायाम दो प्रकारका है--एक 'सगर्भ” और

दूसरा “अगर्भ!। मन्त्रजण और ध्यानसे युक्त

प्राणायाम 'सगर्भ' कहलाता है और इसके विपरीत

जप-ध्यानरहित प्राणायामको 'अगर्भ' कहते हैं।

पूरक, कुम्भक तथा रेचकके भेदसे प्राणायाम

तीन प्रकारका होता है। वायुको भीतर भरनेसे

“पूरक” प्राणायाम होता है, उसे स्थिरतापूर्वक

रोकनेसे “कुम्भक' होता है और फिर उस

वायुको बाहर निकालनेसे 'रेचक' प्राणायाम कहा

गया है। पात्राभेदसे भी वह तीन प्रकारका है--

बारह मात्राका, चौबीस मात्राका तथा छत्तीस

मात्राका। इसमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। ताल या हस्व

अक्षरको “मात्रा' कहते हैं। प्राणायाममें 'प्रणव'

आदि मन्त्रका धीरे-धीरे जप करे। इन्द्रियोंके

संयमको ' प्रत्याहार' कहा गया है। जप करनेवाले

साथकोंद्वारा जो ईश्वरका चिन्तन किया जाता

है, उसे ध्यान" कहते हैं; मनको धारण करनेका

नाम “धारणा' है; न्रह्ममें स्थितिकों 'समाधि'

कहते हैं॥ २१--२४॥

“यह आत्मा परब्रह्म है; ब्रह्म--सत्य, ज्ञान

और अनन्त है; ब्रह्म विज्ञानमय तथा आनन्दस्वरूप

है; वह ब्रह्म तू है; वह ब्रह्म मैं हूँ; परब्रह्म

परमात्मा प्रकाशस्वरूप है; वही आत्मा है, वासुदेव

है, नित्यमुक्त है; वही * ओम्‌" शब्दवाच्य

सच्चिदानन्दघन ब्रह्म है; देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि,

प्राण और अहंकारसे रहित तथा जाग्रत्‌, स्वप्न

एवं सुषुप्ति आदिसे मुक्त जो तुरीय तत्त्व है, वही

* मनुस्मृति ' ही: ' के स्थानमें ' धीः ' पाठ है । * घो" का अर्थं है--शास्त्र आदिके तत्त्वका ज्ञान।

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