चाहिये। वानप्रस्थसे फिर गृहस्थ-आश्रममें न | लेकर सामनेकी दिशाकी ओर जाय अर्थात् पीछे
लौटे। विपरीत या कुटिल गतिका आश्रय न| न लौटकर आगे बढ़ता रहे*॥ १--५॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएुराणमें 'वानप्रस्थाक्रमका वर्णन” नामक
एक सौ साठवाँ अध्याय पृ हुआ॥ १६०॥
(व
एक सौ इकसठवाँ अध्याय
संन्यासीके धर्म
पुष्कर कहते हैं-- अव मैं ज्ञान और मोक्ष
आदिका साक्षात्कार करानेवाले संन्यास-धर्मका
वर्णन करेगा । आयुके चौथे भागमें पहुँचकर, सब
प्रकारके सङ्गसे दूर हो संन्यासी हो जाय । जिस
दिन वैराग्य हो, उसी दिन घर छोड़कर चल दे-
संन्यास ले ले। प्राजापत्य इष्टिं (यज्ञ) करके
सर्वस्वकी दक्षिणा दे दे तथा आहवनीयादि
अग्निर्योको अपने-आपमें आरोपित करके ब्राह्मण
घरसे निकल जाय। संन्यासी सदा अकेला ही
विचरे । भोजनक लिये ही गाँवमें जाय । शरीरके
प्रति उपेक्षाभाव रखे। अन्न आदिका संग्रह न करे ।
वाणी बोले। मनसे दोष-गुणका विचार करके
कोई कार्य करे। लौकी, काठ, मिट्टी तथा
बाँस--ये ही संन्यासीके पात्र हैं। जब गृहस्थके
घरसे धूओं निकलना बंद हो गया हो, मुसल रख
दिया गया हो, आग बह गयी हो, घरके सब
लोग भोजन कर चुके हों और जूँठे शराव
(मिट्टौके प्याले) फेंक दिये गये हों, ऐसे समयमे
संन्यासी प्रतिदिन भिक्षाके लिये जाय । भिक्षा पाँच
प्रकारकी मानी गयी है--मधुकरी (अनेक घरोंसे
थोड़ा-थोड़ा अन्न माँग लाना), असंक्लृष (जिसके
विषयमे पहलेसे कोई संकल्प या निश्चय न हो,
मननशील रहे। ज्ञान-सम्पन्न होवे। कपाल (मिट्टी | ऐसी भिक्षा), प्राक्प्रणीत (पहलेसे तैयार रखी हुई
आदिका खप्पर) ही भोजनपात्र हो, वृक्षकी जड़
हौ निवास-स्थान हो, लंगोरीके लिये मैला-
कुचैला वस्त्र हो, साथमे कोई सहायक न हो तथा
सबके प्रति समताका भाव हो-- यह जीवन्मुक्त
पुरुषका लक्षण है । न तो मरनेकी इच्छा करे, न
जीनेकौ- जीवन और मृत्युमेंसे किसीका अभिनन्दन
न करें॥ १--५॥
जैसे सेवक अपने स्वामीकी आज्ञाकी प्रतीक्षा
करता है, उसी प्रकार यह प्रारब्धवश प्राप्त
होनेबाले काल (अन्तसमय)-की प्रतीक्षा करता
रहे। मार्गपर दृष्टिपात करके पाँव रखे अर्थात्
भिक्षा), अयाचित (बिना माँगे जो अन्न प्राप्त हो
जाय, वह) और तत्काल उपलब्ध (भोजनके
समय स्वतःप्रा्त) । अथवा करपात्री होकर रहें--
अर्थात् हाथहीमें लेकर भोजन करे ओर हाथमे ही
पानौ पीये। दूसरे किसी पात्रका उपयोग न करे।
पात्रसे अपने हाथरूपी पात्रे भिक्षा लेकर ठसका
उपयोग करे मनुष्योंकी कर्मदोषसे प्रा होनेवाली
यमयातना और नरकपात आदि गतिका चिन्तन
करे ॥ ६-१०॥
जिस किसी भी आश्रममें स्थित रहकर
मनुष्यको शुद्धभावसे आश्रमोचित धर्मका पालन
करना चाहिये। सब भूतोंमें समान भाव रखे।
रास्तेमें कोई कीड़ा-मकोड़ा, ङ, केश आदि तो
नहीं है, यह भलीभाँति देखकर पैर रखे। पानीको | केवल आश्रम-चिह् धारण कर लेना ही धर्मका
कपड़ेसे छानक पीये । सत्यसे पवित्र की हुई | हेतु नहीं है (उस आश्रमके लिये विहित कर्तव्यका
* तात्पर्य यह कि पीछे गृहस्थकी ओर न लौटकर आगे संन्यासकौ दिशे बढ़ता चले ।