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आअब्३ ]

* घ्न स्कन्ध *

३३७

मौज मनै मै नमै कोम जौ औ के हे मौ म नि है हे जो तिति मो हे के के नि है क के तिः औ हे मे ते जो के के हे मी की के के तः ओ मैः नै ते की पी

इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी

साधनके द्वारा नहीं जान सकता॥ १६ ॥ वे प्रभु सबके

स्वामी और स्वये परम स्वतन्र हैं। उन्हों मायापति

पुरुषोत्तमके दूत उन्हींके समान परम मनोहर रूप, गुण और

स्वभावसे सम्पन्न होकर इस लोकमें प्रायः विचरण किया

करते हैं॥ १७॥ विष्णुभगवानके सुरपूजित एवं परम

अलौकिक पार्षदोंका दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवानके

भक्तजनोंकों उनके शत्रुओंसे, मुझसे और अग्नि आदि सब

विपत्तियोंसे सर्वथा सुरक्षित रखते हैं॥ १८ ॥

स्वयं भगवानने ही धर्मकी मर्यादाका निर्माण किया

है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण

ही। ऐसी स्थितिमें मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर

आदि तो जान ही कैसे सकते दै ॥ १९ ॥ भगवानके द्वारा

निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है।

उसे जानना बहुत हौ कठिन है । जो उसे जान लेता है, वह

भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है । दूतो ! भागवतघर्मका

रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं--ब्रह्माजी, देवर्षि

नारद, भगवान्‌ शङ्कर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव

मैं (धर्मराज) ॥ २०-२१ ॥ इस जगते जीवोकि लिये

बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य--परम धर्म--है कि वे

नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान्‌के चरणोंमें भक्तिभाव

प्राप्त कर लें॥२२॥ प्रिय दूतो! भगवानके

नामोच्चारणको महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी

एक बार नामोच्चारण करनेमात्रसे मृत्युपाशसे छुटकारा पा

गया ॥ २३॥ भगवानके गुण, लीला और नामोंका

भलीभांति कीर्तन मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे,

यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त

पापी अजामिलने मरनेके समय चञ्चल चित्तसे अपने

पुत्रका नाम 'नारायण' उच्चारण किया। इस

नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो हौ गये,

मुक्तिक प्राप्ति भी हो गयी॥ २४ ॥ बड़े-बड़े विद्वानोंकी

बुद्धि कभी भगवानकौ मायासे मोहित हो जातौ है। वे

अर्थवादरूपिणी बेदबाणीमें ही मोहित हो जाते हैं और

यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े केपि हौ संलग्न रहते हैं तथा इस

सुगमातिसुगम भगवत्रामकौ महिमाको नहीं

जानते | यह कितने खेदकी बात है ॥ २५॥

प्रिय दूतो ! बुद्धिमान्‌ पुरुष ऐसा विचार कर भगवान्‌

अनन्ते ही सम्पूर्ण अन्तःकरणसे अपना भक्तिभाव स्थापित

करते है । वे मेरे दण्डके पात्र नहीं है । पहली बात तो यह

है कि जे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित्‌ संयोगवश

कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवानका गुणगान

तत्काल नष्ट कर देता है॥ २६॥ जो समदर्शी साधु

भगवान्‌को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर

उनपर निर्भर है, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र

चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं । मरे दूतो ! ! भगवान्‌की

गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है । उनके पास तुमलोग

कभी भूलकर भी मत फटकना । उन्हें दण्ड देनेकी सामर्थ्य

ने हममें है और न साक्षात्‌ कालमें ही ॥ २७ ॥ बड़े-बड़े

परमहंस दिव्य रसके लोभसे सम्पूर्ण जगत्‌ और शरीर

आदिसे भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिञ्चन होकर

निरन्तर भगवान्‌ मुकुन्दके पादारविन्दका मकरन्द-रस पान

करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रसते विमुख हैं और

नरकके दरवाजे घर-गृहस्थीकी तृष्णाका बोझा बाँधकर उसे

ढो रहे है, उन्हींको मेरे पास बार-बार लाया करो ॥ २८ ॥

जिनकी जीभ भगवान्‌के गुणों और नामोंका उच्चारण नहीं

करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दोका चिन्तन नहीं

करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान्‌ श्रीकृष्णके

चरणोंमें नहों झुकता, उन भगवत्सेवाविमुख पापियोंकों ही

मेरे पास लाया करो ॥ २९॥ आज मेरे दूतोने भगवान्‌के

पार्षदोंका अपराध करके स्वयं भगवानका ही तिरस्कार

किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान्‌

नारायण हमलोगोंका यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी

होनेपर भी हैं उनके निजजन, और उनकी आज्ञा पानेके

लिये अञ्जलि बांधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम

महिमान्वित भगवान्‌के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर

दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुकों नमस्कार

करता हूँ॥ ३० ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं--] परीक्षित्‌ इसलिये

तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापोंका सर्वोत्तम,

अन्तिम और पाप-वासनाओंको भी निर्मुल कर डालनेवाला

प्रायश्चित्त यही है कि केवल भगवानके गुणों, लीलाओं

और नापोका कीर्तन किया जाय। इसोसे संसारका

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