काएड-८ सुक्त- ९ ३१
[फ्रकट अर्थों में अग्नि एवं सोप रूप अछुतियों के संयोग से ही यज्ञ होता है। गृढ़ अर्थ पे एक यज्ञ अम्नि द्वाता
संचालित है, जिसमें पदार्थ से ऊर्जा उत्पन्न होती है। दूसरा यज्ञ सोम प्रवाह के द्वारा चलता रहता है, जिसके अन्र्वत ऊर्जा की
स्थापना पदारथ पे होती है। ]
२२४५. पञ्च व्युष्टीरनु फञ्व दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च ।
पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लप्तास्ता एकमूध्नीरिभि लोकमेकम् ॥९५॥
पाँच उषा शक्तियों के अनुकूल पंच दोहन समय हैं, पाँच नापवाली गाय के अनुकूल पाँच कतुं है ।
पाँच दिशाएँ पदद्रहवे (चौदह भुवनो से परे पन्रहवे महत् तत्त्व) से समर्थ होकर, किसी योगी के लिए एक लोक
जैसी हो जाती हैं ॥१५ ॥
[जहाँ तक सृष्टि है, वहीँ तक पदार्थ है। जहाँ तक पदार्थ है, वहीं तक दिका हैं। उसके परे दिशाएँ नहीं है ।]
२२४६. षड् जाता भूता प्रथमजर्तस्य षड सामानि षडहं वहन्ति ।
षङ्घोगं सीरमनु सामसाम षडाहू्ावापृथिवीः षडु्वीः ॥१६ ॥
प्रारम्भ में ऋत से छह भूत (पाँच तत्व और छटवौ मन), छह साम (उनकी तम्मात्राएँ) पथा उनके संयोग से
छह प्रकार के 'अहं' उत्पन्न हुए । यह छह युग्मो से जुड़े बन्धनों के साथ छह साम (प्रवृत्तियाँ) जुड़ी हैं । चुलोक से
पृथ्वी तक छह लोक है । भूमि भी छह (अन्दर छह पर्तवाली) हैं ॥१६ ॥
[ सात लोक हैं, पृथ्वी या शु के अतिरिक्त छह हैं। घृवैज्ञानिकों के अनुसार भूमि की ऊपरी सतह के अद्रि अन्दर
छह प्व और हैं। ]
२२४७. षडाहु: शीतान् षड् मास उष्णानृतुं नो ब्रूत यतमो5तिरिक्त: ।
सप्त सुपर्णाः कवयो नि षेदुः सप्त च्छन्दांस्यनु सप्त दीक्षाः ॥ १७ ॥
छह मास शीत ऋतु ओर छह मास ग्रीष्म ऋतु के कहे गये है इनके अतिरिक्त शेष जो है, उनके सम्बन्ध में
हमें बताएँ । ज्ञानीजन सात सुपर्ण, सात छन्द और सात दीक्षाओं से सम्बन्धित ज्ञान रखते हैं ॥१७ ॥
२२४८. सप्त होमाः समिधो ह सप्त मधूनि सप्तर्तवो ह सप्त ।
सप्ताज्यानि परि भूतमायन् ताः सप्तगृश्रा इति शुश्रुमा वयम् ॥१८ ॥
सात यज्ञ, सात समिधाएँ , सात ऋतुएँ और सात प्रकार के मधु है । सात प्रकार के घृत ( तेजस्) इस जगत्
मे मनुष्य को उपलब्ध होते है । इनके साथ सात गृध (गीघ) भी हैं, ऐसा हम सुनते है ॥१८ ॥
[ विद्वानों का मत है कि सात प्रकार के तेजस् जब उपयुक्त दिशा में प्रयुक्त होते है तो ऋषि कहलाते हैं, वही जब
अनुफ्युक्त-विकृत प्रयोगों पे लग जाते हैं, तो 'गीध' कहलाते हैं ।]
२२४९. सप्त च्छन्दांसि चतुरु्तराण्यन्यो अन्यस्मिन्नध्यापितानि ।
कथं स्तोमाः प्रति तिष्ठन्ति तेषु तानि स्तोमेषु कथमार्पितानि ॥१९ ॥
सात छन्द और चार श्रेष्ठ (वेद विभाग) हैं, ये सभी परस्पर एक-दूसरे में समाहित है । उनमें स्तोम कैसे
विराजमान हैं और वे स्तोमों में कैसे समर्पित हैं ? ॥१९ ॥
२२५०. कथं गायत्री त्रिवृतं व्याप कथं त्रिष्टुप् पञ्चदशेन कल्पते ।
त्रयञ्जिशेन जगती कथमनुष्टुप् कथमेकर्विशः ॥२० ॥
गायत्री त्रिवृत् को कैसे संव्याप्त करती है, त्रिष्टप् पन्द्रह से किस प्रकार निर्मित है, तैतीस से जगती और
इक्कीस से अनुष्टप् कैसे सम्बन्ध रखते हैं? ॥२० ॥