३३.१२ यजुवेंद संहिता
१७८०. आ नो यज्ञं दिविस्पृशं वायो याहि सुमन्मभिः ।
अन्तः पवित्रऽ उपरि श्रीणानोय ९ शुक्रो अयामि ते ॥८५॥
हे वायो ! आप हमारे इस दिव्यता का स्पर्श करने वाले श्रेष्ठ वज्ञ में पधारें ऊपर से सिञ्वित हुआ
४ सोप पात्र में स्थित होता है । श्रेष्ठ स्तोत्रों द्वारा स्तुति करते हुए हम इसे आपके लिए अर्पित
८५ ॥
१७८१. इन्द्रवायू सुसन्द्शा सुहवेह हवामहे । यथा नः सर्वऽ इज्जनोनमीवः सङ्गमे सुमना
असत् ॥८६ ॥
यहाँ इस यज्ञ में उत्तम रूप से देखने वाले, उत्तम रूप से आहूत किये जाने योग्य इन्द्र और वायुदेव का हम
आवाहन करते हैं, जिससे कि हमारे पुत्र-पौत्रादि जन व्याधिरहित एवं उत्तम मन वाले हों ॥८६ ॥
१७८२. ऋषगित्था स मर्त्यः शशमे देवतातये । यो नून पित्रावरुणावभिष्टयःऽ . आचक्रे
हव्यदातये ॥८७॥
निश्चय ही जो मनुष्य अभीष्ट लाभ के लिए ओर हविदान के लिए मित्रावरुणदेव का आवाहन करते है वे
मनुष्य देवकर्म करते हुए कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥८७ ॥ -
१७८३. आ यातमुप भूषतं मध्वः पिबतमश्विना । दुग्धं पयो वृषणा जेन्यावसू मा
मर्धिष्टमा गतम्॥८८ ॥
हे अश्चिनीकुमारो ! आप दोनों हमारे यज्ञ में पधारें और इस यज्ञ की शोभा बढ़ाएँ । यहाँ आकर मधुर रसों
का पान करें । हे वर्षणशील देवो और धन के स्वामियो ! आप हमें दुग्धादि पेयों से अभिपूरित करते हुए यहाँ
आगमन करें । हमें पीड़ित न करें ॥८८ ॥
१७८४. परैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनता। अच्छा वीरं नय॑ पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञ
नयन्तु नः॥८९॥ `
ब्रह्मणस्पति हमारे अनुकूल होकर यज्ञ में आगमन करें । हमें सत्यरूप दिव्यवाणी प्राप्त हो । मनुष्यों के
हितकारी देवगण हमारे यज्ञ में पंक्तियद्ध होकर पधार तथा शत्रुओं का विनाश करें ॥८९ ॥
१७८५. चन्द्रमाऽअ्स्वन्तरा सुपर्णो धावते दिवि । रयिं पिशड़ूं बहलं पुरुस्पृह हरिरेति
कनिक्रदत् ॥९० ॥
चन्द्रमा से निस्सृत, शुभ्र दीप्तियुक्त, तेजस्विता को धारण किये हुए हरिताभ सोम पर्जन्यरूप में घोर गर्जन
मे हर चुलोक एवं अन्तरिक्ष से गमन करते है । वे मनुष्यों द्वारा वाज्छित स्वर्णं सदृश तेजस्वी धनो को प्रदान
॥९० ॥
२०७६ . देवं-देवं वोवसे देवं-देवमभिष्टये । देवं -देव हुवेम वाजसातये गृणन्तो देव्या
॥९१॥
श्रेष्ठ स्तोत्र से स्तुति करते हुए हम अपनी रक्षा के लिए देवों के अधिपति का आवाहन करते है । अभीष्ट
सुख प्राप्ति के लिए हम देवाधिपति देव को आहुति समर्पित करते हैं और अन्न प्राप्ति के लिए हम सर्वोच्च देव
का इस यज्ञ मे आवाहन करते हैं ॥९१ ॥