Home
← पिछला
अगला →

विषंग पलायन वर्णेन | [ ३५१

प्राप्त जैसे हो गये थे।४५। अपने बडे भाई को नेमरनोर करने वाले किपषंग के

पीछे चल दिये थे । वह बिषंग कूट युद्ध के द्वारा महेश्वरी के जीतने की

इच्छा बाला था ।४६। उसने मेघडम्बर नाम वाले कड्भुूट को वक्षः स्थल पर

धारण किया था। उसके वेष का संग्रह भी निशा के युद्ध के ही अनुरूप भा

।४७। उसी भाँति से सेना ने भी श्याम वर्ण के कंचुक आदि धारण किये

थे। उस समय में न तो किसी दुन्दुभि का घोष था और त कोई मं ल' को

ही गर्जना थी !४८। प्रणव-जानकः और भेरियों की भी उस समय में ध्वत्ति

नहीं हुई थी। वे सबके सब गुप्त समाचरण शले आकार से समावृत होते

हुए रवाना हुए थे ।४६।

परेरहृश्यग॒तयो विष्को शीकृतरिष्टयः ।

पश्चिमाभिमूखं यांति ललितायाः पताकिनीम्‌ ॥५०

आवृतोत्तरमागेण पूर्व भागमशिश्षियन्‌ ।

निश्वासमपि सस्वानमक्रवंतः पदे पदे ॥५१

सावधानाः प्रचलिताः प्रार्ष्णिग्राहाय दानवाः ।

भूयः पुरस्य दिग्भागं गत्वा मन्दपराक्रमाः ॥५२

ललितासेन्यमेव स्वान्स्‌ चयंत प्रपृच्छतः ।

आगत्य निभृतं पृष्ठे कव्रचच्छन्नविग्रहा: ।५३

चक्रराजरथ तुगं मेरुमदरसंनिभम्‌ ।

अपशष्यन्नतिदीप्ताभिः णक्तिरिः परिवारितम्‌ ॥५४

तत्र मुक्तात्तपत्रस्य वत्तंमानामधः स्थते ।

सहस्रादित्यसंकाणां पश्चिमामुखीं स्थिताम्‌ ॥५५

कामेष्वर्यादिनित्याभिः स्वसमानसमृद्धिभिः ।

नर्मालापविनोदेन सेव्यमानां रथोत्तमे ॥५६

ये सव ऐसे वहां से चले थे कि दूसरों के द्वारा नं देखे जावे । इन्होंने

रिष्टियों को म्यानों से निकाल लिया भ्रा ललिता को सेना के पश्चिम

की ओर मुह करके ही थे. गमन कर रहे थे ।५०। आवृत उत्तर मार्ग ते

इन्होंने पूर्व भाग का समाश्रय ग्रहण किया था। ये पद-पद पर अपने

निःश्वासो की ध्वनि को भी चलने में नहीं कर रहे थे ।४५१। दानवरण बहुत

← पिछला
अगला →