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६० अशयविद संहिता पाग-२

५४७९. इनदर त्वोतास आ वयं वज्रं घना ददीमहि । जयेम सं युधि स्पृथः ॥१९॥

हे इद्धदेव ! आपके द्वारा संरक्षित होकर तीण क्रं को धारण कर हम युद्ध में स्पर्धा करने वाले शत्रुओं पर

विजय प्राप्त करें ॥१९ ॥

५४८०. वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र त्वया युजा वयम्‌। सासह्वाम पृतन्यतः ॥२० ॥

हे इद्रदेव ! आपके द्वारा संरक्षित कुशल शस्त्र चालक वीरो के साथ हम अपने शत्रुओं को पराजित करें ॥२०।

[ सूक्त-७१ ]

[ ऋषि- मधुच्छन्दा । देवता- इन्द्र । छन्द- गायत्री ।]

५४८१. महां इन्द्र; परश्च नु महित्वमस्तु वच्निणे । दयौर्न प्रथिना शवः ॥९ ॥

इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान्‌ हैं । वत्रधारी नरव का यश चुलोक के समान व्यापक होकर फैले तथा इनके बल

की प्रशंसा चतुरदिक्‌ हो ॥१॥

५४८२. समोहे वा य आशत नरस्तोकस्य सनितौ । विप्रासो वा धियायवः ॥२ ॥

जो संग्राम में जुरते हैं, जो पुत्र की विजय हेतु संलग्न होते हैं और बुद्धिपूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिए यल करते

हैं, वे सब इन््रदेव की स्तुति से इष्टफल पाते हैं ॥२ ॥

५४८३. यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते । उर्वीरापो न काकुदः ॥३ ॥

अत्यधिक सोमपान करने वाले इद्धदेव का उद्र समुद्र को तरह विशाल हो जाता है । वह (सोमरस) जीभ

से प्रवाहित होने वाले रसो की तरह सतत द्वित होता रहता है ॥३ ॥

५४८४. एवा हस्य सूनृता विरष्शी गोमती मही । पक्वा शाखा न दाशुषे ॥४॥

इन्द्रदेव की मधुर और सत्यवाणी उसी प्रकार सुख देती है, जिस प्रकार गोधन के दाता और पके फल वाली

शाखाओं से युक्त वृक्ष आदि ( हविदाताओं ) को सुख देते है ॥५ ॥

५४८५.एवा हि ते विभूतय ऊतय इन्दर मावते । सदयश्चित्‌ सन्ति दाशुषे ॥५ ॥

हे इद्धदेव ! आपकी इष्टदात्री ओर संरक्षण प्रदान करने वाली विभूतियाँ हमारे जैसे सभी दानदाताओ

( अपनी विभूतिया श्रेष्ठ कार्य में नियोजन करने वालो) को तत्काल प्राप्त होती हैं ॥५ ॥

५४८६. एवा हास्य काम्या स्तोम उक्थं च शंस्या । इन्द्राय सोमपीतये ॥६ ॥

दाता की स्तुतियौ ओर उक्य वचन अति मनोरम एवं प्रशंसनीय है । ये सब सोमपान करने वाले

इन्द्रदेव के लिये हैं ॥६ ॥

५४८७. इन्द्रेहि मत्स्यन्धसो विश्वेभि: सोमपर्वभिः । महां अभिष्टिरोजसा ॥७ ॥

हे इद्धदेव ! सोमरूपी अन्नों से आप प्रफुल्लित होते है । अपनी शक्ति से दुर्दान्त शत्रुओं पर विजय श्री वरण

करने की क्षमता प्राप्त करने हेतु आप ( यज्ञशाला में ) पधारें ॥७ ॥

५४८८, एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने । चक्रिं विश्वानि चक्रये ॥८ ॥

(है याजको १ प्रसन्नता देने वाते सोमरस को (निचोड़कर) तैयार करे तथा सम्पूर्ण कार्यों के सम्पादक इन्द्रदेव

सामर्थ्य बढ़ाने वाले इस सोम को अर्पित करें ॥८ ॥

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