चतुर्थोऽध्यायः ४.२
१३३. आ वो देवासऽ ईमहे वामं प्रयत्यध्वरे । आ वो देवासऽ आशिषो यज्ञियासो हवामहे ।
हे देवगण ! यज्ञ के प्रारम्भ होने पर हम यज्ञफल की कामना से आपका आवाहन करते है । हे देवगण !
हम यज्ञ के आशीर्वाद रूपी फल की प्राप्ति के लिए आपको बुलाते हैं ॥५ ॥
१३४. स्वाहा यज्ञ मनसः स्वाहोरोरन्तरिक्षात्स्वाहा द्यावापृथिवीभ्या £ स्वाहा
वातादारभ स्वाहा ॥६ ॥
हम अन्तःकरण (पूर्ण मनोयोग) से यज्ञ-अनुष्यान करते हैं ।विस्तीर्ण अन्तरिश्च के लिए यज्ञ करते है । द्युलोक
ओर पृथ्वीलोक के लिए हम यज्ञ कार्य करते है । सभी कर्मों के प्रेरक वायुदेव कौ कृषा से हम यज्ञ प्रारंभ करते हैं॥
१३५. आकूत्यै प्रयुजेग्नये स्वाहा मेधायै मनसेग्नये स्वाहा दीक्षायै तपसेग्नये स्वाहा
सरस्वत्यै पृष्णोग्नये स्वाहा । आपो देवीरवृहतीर्विश्वशम्भुवो द्यावापृथिवी उरो अन्तरिश्च ।
बृहस्पतये हविषा विधेम स्वाहा ॥७ ॥
यज्ञ करने के मानसिक सङ्कल्य के प्रेरक अग्निदेव के लिए यह आहुति है । मंत्र धारण की शक्ति-मेधा तथा
मन के उत्रेरक अग्निदेव को यह आहुति समर्पित है । दीक्षा एवं तप की सिद्धि के लिए अग्निदेव को यह आहुति
दी जाती है । मन्ोच्वारण की शक्ति युक्त सरस्वती (वाणी) तथा वाक् इन्द्रिय का पोषण करने वाले पूषादेव को
प्रेरणा देने वाले अग्निदेव को यह आहूति दी जा रही है । हे चुलोक एवं पृश्वीलोक ! हे अति विस्तृत अन्तरिश्च !
द्युतिमान् विशाल, संसार के सुख की कामना करने वाले हे जल ' श्रेष्ठ ज्ञान की प्राप्ति के लिए हम हविष्यान
समर्पित करते हैं । यह आहुति बृहस्पति देव के लिए समर्पित है ॥७ ॥
१३६. विश्वो देवस्य नेतुर्मतों वुरीत सख्यम् । विश्वो राय5इषुथ्यति दयुम्नं वृणीत पुष्यसे
स्वाहा ॥८ ॥
सभी मनुष्यों को कर्मफल देने वाले, दानादि गुणयुक्त सविता देवता की मित्रता प्राप्त करने की हम प्रार्थना
करते हैं । प्रजापालन के लिए द्युतिमान् (यशस्वी) वैभव की हम कामना करते हैं । सभी मनुष्यों के धन-प्राप्ति के
निमित्त हम सविता देवता को प्रार्थना करते है । इसी निमित्त यह आहूति समर्पित है ॥८ ॥
१३७. ऋक्सामयोः शिल्पे स्थस्ते वामारभे ते मा पातमास्य यज्ञस्योदृचः । शर्मासि शर्म
मे यच्छ नमस्ते अस्तु मा मा हि ॐ सीः ॥९॥
यज्ञकर्म में इस कण्डिका के द्वारा कृष्णाजिन (मृगचर्म) स्थापित करने का विधान किया गया है -
हि शिल्प रूपात्पक ऋक् और साम के अधिष्ठाता देवताओ ! हम आपका स्पर्शं करते हैं आप उत्तम
ऋचाओं के उच्चारण काल तक हमारी रक्षा करें । हे शिल्पपते ! आप हमारे शरणदाता है, अतएव हमें आश्रय
दें । (ऋक्, सामरूप) आप को नमस्कार है । आप यजमान को कष्ट न दें ॥९ ॥
१३८. ऊर्गस्याङ्गिरस्यर्णभ्रदा ऊज॑ मयि धेहि । सोमस्य नीविरसि विष्णोः शर्मासि शर्म
यजमानस्येन्द्रस्य योनिरसि सुसस्याः कृषीस्कृथि | उच्छ्रयस्व वनस्यतऽऊर्ध्वो मा पाह्य
४ हसऽ आस्व यज्ञस्योदृचः ॥१० ॥
यह कण्डिका य्न पेखला तथा उससे सम्बन्धित उपकरणों को सम्योधित कर रही है -
(यज्ञ मेखला के प्रति) हे अंगों को शक्ति देने वाली ! आप हमें बल प्रदान करें । हे सोम प्रिय मेखले !
आप हमारे लिए नीवी (दोनों सिरे को जोड़ने वाली प्रथि) रूप हो । (वस्त्र के प्रति) आप विष्णु (यज्ञ) के लिए
मुखदायी माध्यम हो । आप याजको के लिए सुखदायक बनें । (कृष्ण-विषाणं से खोदी भूमि के प्रति) आप इन्द्रदेव