५८ कै श्री लिंग पुराण की
कहे हैं, परन्तु योगी को आत्म कामना के लिए इन्हें
सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इन गुणों के पिशाच,
पार्थिव, राक्षस, याक्ष, गान्धर्व, ऐन्द्र, व्योमात्मक,
प्रजापत्य अहंकार, ब्राह्म आदि नाम बताये हैं। इनमें आदि
को आठ रूपों वाला दूसरे को सोलह रूपों वाला बताया
है। इसी प्रकार तीसरे को चौबीस, चौथे को बत्तीस,
पांचवें को चालीस भूतमात्रा का बताया है। ६४ गुणों से
युक्त ब्राह्म गुण होता है। औपसर्गिक आदि गुणों का
त्याग करके लोक में ही गुणों को देखकर योगी को
योग में तत्पर रहना चाहिए।
मोटापन, हल्कापन, बालकपन तथा जवानी आदि
अनेक प्रकार की जाति देहधारियों के लिए कही गई हैं।
पृथ्वी आदिक अंशों के बिना ही सुन्दर गन्ध से युक्त जो
ऐश्वर्य हैं वह आठ गुण वाला होता है उसे महा पार्थिव
गुण कहा है। जल में रहता हुआ भी भूमि पर निकल
आना, इच्छा शक्ति के द्वारा सम्पूर्ण समुद्र को भी पीने
की सामर्थ रखना, संसार में जो देखने की इच्छा हो उसे
जल में देख लेना, जो भी वस्तु हों उन्हें कामना के द्वारा
ही भोगने की इच्छा से ही भोग लेना, बिना बर्तन के ही
हाथ पर जल को पिंड के समान रख लेना, शरीर से
अग्नि की लौ निकलते रहने पर भी जलने का भय न
होना, शरीर का घाव रहित रहना आदि सोलह प्रकार के