५० ] [ ब्रह्माण्ड पुराण
दशयोजनविस्तीर्णमायतं शतयोजनम् ।
नीलमेधप्रतीकाशं मेघस्तनितनिः स्वनम् ।।१२
महापर्बतवर्ष्माणं श्वेततीक्ष्णोग्रदं ष्टिणम् ।
विद्युदग्निप्रतीकाश मादित्यसमतेजसम् १३
पीनवृत्तायतस्कन्धं विष्णुविक्रमगामि च)
पीनोन्नतकटीदेशं वृषलक्षणपूजितम् ॥\१४
इसके उपरान्त उस जल में अन्तगंत में महत् का ज्ञान. प्राप्त किया
था भूमिका उद्धारण करने के विषय में मूढृता से रहित उन्होंने अनुमान
किया था ।८). इसके पश्चात् अन्य ओंकारा तनु का जैसे पहिले कल्पो के
आदि में था उन महात्मा ने मन में ही उस दिव्य स्वरूप का चिन्तन किया
था ।६। उस विणाल जल की राशि में उन्होंने.डूबी हुई भूमि को देखकर
भली भांति चिन्तन किया था. कि क्या स्वरूप धारण करके मैं इस भूमि का
जल से उद्धार करू ।१०। जल में क्रीड़ा करना बहुत हो उचित है ।. इस
तरह से उन्होंने वाराह के रूप का स्मरण किया था। जो कि समस्त
प्राणियों के द्वारा न देखने के योग्य है. और वाड्मय ब्रह्म की संज्ञा वाला है
\११। उसका विस्तार. दश योजन का था उसकी चौड़ाई अर्थात् फैलाव सौ
योजन था । नीले मेष के समान उसका वर्ण था और मेध के गजेन के सहश
वनि थी-।१२। एक विशाल पर्वत के तुल्य उसका शरीर था. और उसकी
दाढ़ें श्वेत एवं उग्र और तीक्ष्ण थी । । बिजली की अग्नि जैसी होती है उसी
प्रकोर चमक थी तथा सूर्य के समान उसमें तेज था ।१३। मोटे और चोड़े
स्कन्ध ये और भगवान् विष्णु के विक्रम से गमनशील थे। उसकी कटि का
भाग स्थूल और ऊंचा था । बह वृष के लक्षणों से पूजिते धा । १४५
आस्थाय रूपमतुलं वाराहममितं हरिः ।
पृथिव्युद्धरणार्थाय प्रविवेण रसातलम् ।।१५
दीक्षासमाप्तीषशिदषटरः क्रतुदंतो जुहमुख: ।
अग्निजिह्वो दभंरोमा ब्रह्मशीर्षो महात्रपाः ।॥१६
वे दस्करधो टचिगं न्धिहंव्यकव्यादिवे गवाचू ।
प्राग्व लकायो युतिमाच् नानादीक्षानिरन्विततः (१७