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# दारणं व्रज सर्वेशं सृस्युजयमुमापतिम्‌

॥ ,

[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण

विन्ध्वावछिकी यह यात सुनकर भगवान्‌ विष्णु बढ़े

प्रसक्ष हुए और राजा बलिसे मधुर बाणीमें बोले--तात !

मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । योलो--मैं तुम्दारा कौन-सा कार्य

कहूँ | न | सम्पूणं दाताभमि तुम सबसे श्रेष्ठ हो,

तुम्हारा कल्याण हो, तुम इच्छानुसार वर माँगों । मैं तुम्दारी

सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण किये देता हूँ |! भगवान्‌ वामनने ऐसा

देयेश्वर | वह सनातन भक्ति बार-बार निरन्तर बढ़ती

‰.)

सर

बलिके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भतभावन भगवान्‌

यामनने अत्यन्त प्रसन्न दोकर कड्ा--“राजन्‌ ! तुम अपने

भाई-अन्धु और सम्बन्धिषोंके साथ खुतलसोकमें चके

जाओ |? यह सुनफर दैत्यराज श्रि य्ोडे--देवदेश ! आप

ही बताइये, खुतछछोकमे मेरा क्या काम है ? मैं तो आपके

पास ही रहूँगा; इसके विपरीत कुछ भी कहना उचित नहीं

द|) तत्र भगवान्‌ इषीकेश राजा बिके प्रति अत्यन्त कृपाच

होकर बोके--श्यजन्‌ ! मैं सदा तुम्हारे समीप रहूँगा । असुर-

श्रेष्ठ ! तुम खेद न करो, मेरी बात सुनो । मैं सुतलूछोकर्मे

तुम्हारा द्वारपाल होकर र्गा, मेरे इस बचनकों चुम वरदान

समझो । आज मैं दुम्दोरे छिये वरदायक होकर उपस्थित

हूँ । अपने वेकुण्ठवासी पार्षदोंके साथ तुम्दोरे धरमें नियास

करूँगा ।! अतुल तेजस्वी भगवान्‌ विष्णुका यह वचन सुनकर

दैत्यराज यि असुरोके साथ सुतल्ूछोकर्मे चछे गये । वहाँ

बाणासुर आदि सौ पुत्रकि खाथ वे सुखपूर्वक निवास करने

ह्म । महाबाहु दि दाताओंके भी परम आभ्य है । तीनों

छोकोंके याचक राजा बलिके पास जाते हैं और उनके द्वारपर

विराजमान भगवान्‌ विष्णु खयं उन्हें मुँहमोंगी बस्तुएँ देते

हैं। कोई भोगकी कामना देकर जायें या मोक्षकी, जिनकी

जैसी रुचि होती है, उसीफे अनुसार, उनको बह बस्तु

ये समर्पित करते हैं ।

भगवान्‌ शङ्करकी कृपासे ही राजा बलि ऐसे महत्त्वशाली

हुए हैं । पूर्वकालमें झुआरीके रूपमें उन्होंने परमात्मा शिवके

उद्यसे जो दान किया था; उसीका यह फल है। अपविध्र

भूमिमें परुँचकर गिरी हुई गश्च, पुष्प आदि सामग्रीकों भी

परमात्मा शिवकी वेवामे समर्पित करके जघ बलिने इतनी

उन्नति की; तब जो छोग शद्धा ओर भक्तिसे महादेवजीकी

सेवामे गन्ध, पुष्प और जक अपण करते हैं उनके लिये तो

कहना ही च्या ट ! वे साक्षात्‌ भगवान्‌ शिवे समीप जाते

हैं । ब्राक्षणो ! भगवान्‌ शिवसे बढ़कर दूसरा कोई पूजनीय

देवता नहीं है । जो गूँगे हैं, अन्धे है, पंगु और जड़ हैं तथा

जाति-बहिष्डत, चाण्डाल, श्ययच और अन्त्यन हैं; वे

भी यदि सदा भगवान्‌ शिषे भजने तत्पर रहें तो परम

गतिको प्राप्त होते हैं। अतः सम्पूर्ण मनीषी पुरुषोंके लिये

भी भगवान्‌ शिव ही सदा पूजनीय ह । पूजनीय ही नहीं,

विद्ानोंके द्वारा वे सदा चिन्तनीय और वन्दनीयं भी हैं।

परमार्थ -तत्वके ज्ञाता पुरुष अपने हृदयं विराजमान भगवान

महेश्वरका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं ।

तारकासुरको त्रह्माजीका बरदान, हिमालयके घर सतीका पार्वतीरूपर्मे अवतार, शङ्करजीके

रोपसे कामदेवका मख होना तथा पार्वतीकी

र्बतीकी उग्र तपस्या

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ऋषियोंनि पृद्धा--मष्टामाग रुतजी ! दक्षकुमारी

हो गयी, तब पुनः कब और कष प्रकट दुं ! वे पुनः किस

सती जब अपने पिता दक्षके यकम अभिप्रबेश करके अन्तर्धाने प्रकार उन्हें मिली !

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