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* श्रीमद्भागवस *
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भीष्मपितामहके पास बैठ गये। उन्ह देखकर
भीष्पपितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं।
उन्होंने उससे कहा-- ॥ ११ ॥ “धर्मपुत्रों हाय ! हाय !
यह बड़े कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको
ब्राह्मण, धर्म और भगवान्के आश्रित रहनेपर भी इतने
कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नही
थे॥ १२॥ अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी
अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुपलोगोंके लिये
कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से
कष्ट झेलने पड़े ॥१३॥ जिस प्रकार बादल कायुके
वशे रहते हैं, वैसे ही लोकपालोकि सहित सारा संसार
कालभगवान्के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगोकि
जीवनमें ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई है, वे सब
उन्हींकी लीला हैं॥ १४ ॥ नहीं तो जहां साक्षात् धर्मपुत्र
राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन
रक्षाका काम कर रहे हो, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं
श्रीकृष्ण सुहृद् ह -- भला, वहाँ भी विपत्तिकी सम्भावना
है ?॥ १५॥ ये कालरूप श्रीकृष्ण कव क्या करना
चाहते हैं, इस बातको कभी कोई नहीं जानता।
बड़े-बड़े इनी भी इसे जाननेकी इच्छा करके
मोहित हो जाते हैं॥१६॥ युधिष्ठिर ! संसारकी
ये सब घटनाएँ ईश्वरेच्मके अधीन हैं। उसीका अनुसरण
करके तुम इस अनाथ प्रजाका पालन करो; क्योंकि अब
तुम्ही इसके स्वामी ओर इसे पालन करलेमें समर्थ
हो॥ १७ ॥
ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् हैं। ये सबके आदि-
कारण और परम पुरूष नारायण हैं। अपनी मायासे
लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला
कर रहे हैं॥१८॥ इनका प्रभाव अत्यन्त गृढ़ एवं
रहस्यमय है । युधिष्ठिर ! उसे भगवान् शङ्कर, देवर्षि नारद
और स्वयै भगवान् कपिल ही जानते है ॥ १९ ॥ जिन्हें
तुम अपना ममेश भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हितू
मानते हो तथा जिन्हें तुमने प्रेमवश अपना मन्त्री, दूत
और सारथितक बनानेमें संकोच नहीं किया है, वे ख्यं
परमात्मा हैं॥ २० ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय,
अहृङ्काररहित और निष्पाप परमात्मामें उन ऊँचे-नीचे
कार्योके कारण कभी किसी प्रकारकी विषमता नहीं
होती ॥ २१॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर
भी, देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी
कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समयमे जबकि
मैं अपने प्राणोंका त्याग करने जा रहा हूँ, इन भगवान्
श्रीकृष्णे मुझे साक्षात् दर्शन दिया है॥२२॥
भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन
लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए
शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके
बन्धनसे छूट जाते हैं॥२३॥ वे ही देवदेव भगवान्
अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे
उल्लसित चतुर्भुजरूपसे, जिसका और
लोगोको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं
स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जबतक मैं इस शरीरका
त्याग न कर दूँ ॥ २४॥
सूतजी कहते हैं-युधिष्ठिरे उनकी यह बात
सुनकर शर-शब्यापर सोये हुए भीष्पपितामहसे बहुत-से
ऋषियोंके सामने ही नाना प्रकारके धर्मोके सम्बन्धमें
अनेकों रहस्य पूछे॥२५॥ तब तत्त्ववेत्ता भीष्म-
पितामहने वर्ण और आश्रमके अनुसार पुरुषके स्वाभाविक
धर्म और वैराग्य तथा रागके कारण विभिन्नरूपसे बतलाये
हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म,
राजधर्म, मोक्षधर्म, स्रीघर्म और भगवद्धर्म--इन सबका
अलग-अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया।
शौनकजी ! इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष--इन चारों पुरुषार्थोका तथा इनकी प्राप्तिके
साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए
विभागशः वर्णन किया ॥ २६-२८ ॥ भीष्पपितामह इस
प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका
समय आ पहुँचा, जिसे मृत्युकों अपने अधीन रखनेवाले
भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं॥२९॥ उस
समय हजारों रधियोकि नेता भीष्पपितामहने वाणीका संयम
करके मनको सब ओरसे हटाकर अपने सामने स्थित
आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया। भगवान्
श्रीकृष्णके सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पौताम्बर
फहरा रहा था। भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग
गयीं ॥ ३० ॥ उनको शख्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी,
वह तो भगवानके दर्शनमात्रसे ही तुरन्त दूर हो गयी तथा