१२ यजुर्वेद सहिता
आप ( दर्भमय पवित्र वसु ) सैकड़ों-सहस्रों धाराओं वाले, ( वस्तुओ को ) पवित्र करने वाले साधन हो ।
सबको पवित्र करने वाले सविता, अपनौ सैकड़ों धाराओं से ( वस्तुओं को पवित्र करने वाले साधनों से )
तुम्हें पवित्र बनाएँ । हे मनुष्य ! तुम और किस (कामना) की पूर्ति चाहते हो? अर्थात् किस कामधेनु
क्र दुहना चाहते हो ? ॥३ ॥
ओोदुग्ध पे सन्निहिते पोषक तत्वों को अंतरिक्ष से पृथ्वी पर सहस्रो धाराओं पे प्रवाहित होते देखते है । यज्ञ की
प्रक्रिया को इसो विर् दर्शन से जोड़ना चाहते हैं ॥
४. सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भाग % सोमेनातनच्मि
विष्णो हव्य रक्ष ॥४॥
प्रस्तुत कण्डिका पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर में दोहनकर््ता पुरुष दुग्ध रूपी हवि एवं पोषणकर्त्ता विष्णु को सम्बोधित है-
हे मनुष्य ! पूर्ण आयुष्य, कर्तृत्वशक्ति एवं धारक शक्ति (रूपी तीन कामधेनु) आपके पास हैं । इनसे प्राप्त
(दुग्ध) पोषण-क्षमताओं में से हम (अध्वर्यु) इन्द्र के हिस्से में सोम को मिलाकर उसे स्थिर करते हैं । पोषणकर्त्ता
(विष्णु) इन हव्य पदार्थों को सुरक्षित रखें ॥४ ॥
५. अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् । इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि ॥
प्रस्तुत कण्डिका पे कर्म के अनुष्ठान की प्रतिज्ञा की गई है ~
हे बतों के पालनकर्त्ता, तेजस्वी अग्निदेव ! हम व्रतशील बनने में समर्थ हों । हमारा, असत्य को त्यागकर
सत्यमार्ग पर चलने का व्रत पूरा हो ॥५ ॥
६.कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्यै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वां वेषाय वाम् ॥
प्रस्तुत कण्डिका प्रणीत (यजमान द्वारा विशेष विधि से लाये गये) जल धारण करने वाले पत्र को सम्योधित है -
(प्रश्न) हे यज्ञ साधनो ! तुम्हें किसने नियुक्त किया है ?किसलिए नियुक्त किया है ? (उत्तर) उसने (स्रष्टा
ने) तुम दोनों (सबल-निर्बल) को (यज्ञादि) कर्म करने के लिए नियुक्त किया है, (उत्तम कर्मो से) दिव्य स्थान मे
संव्याप्त होने के लिए नियुक्त (वत्त) किया रै ॥६ ॥
परत्ु्ट्छ रक्षः प्रत्युष्टा अरातयो निष्टप्त रक्षो निष्टप्ता अरातयः।
उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥७ ।।
प्रस्तुत कण्डिका के साथ काष्ठपात्रों को यज़ाम्नि में तपाकर विकाररहित करने का विधान है--
यज्ञ ऊर्जा के प्रभाव से, सम्बन्धित उपकरणों मे सन्निहित राक्षस एवं शत्रुगण (विकार) जल-भुन चुके हैं ।
सताने वाले (विकार) झुलस कर जल चुके हैं । अतः अन्तरिक्ष में (यज्ञार्थ) वे यज्ञीय साधन, बिना किसी रुकावट
के प्रवेश करते हैं ॥७ ॥
` ८. धूरसि धूर्व धूर्वन्तं धूर्व तं योस्मान्धूर्वति तं धूर्व यं वयं धूर्वाम: । देवानामसि वद्धितम ७»
देवहूतमम् ॥८ ॥
यह कण्डिका यज्ञ के संसाधन लाने वाले वाहन 'शकट' एवं हवि-वाहक “अग्नि दोनों पर घटित होती है । अग्नि के
अतिक्रमण का अपरा दूर करने के लिए "शकट -घुर' के स्पशं कौ क्रिया का विधान है-
आप अपनी विष्वं सकारी शक्ति से दुष्टौ एवं हिंसको का विनाश करें । जो अनेक लोगो को कष्ट पहुँचाता
है, उस हत्यारे को नष्ट करें । जिस दुरात्मा को सभी नष्ट करना चाहते हैं, उसे नष्ट करें । (हे शकट-देवशक्तियों
तक हवि पहुँचाने वाले यज्ञागने !) आप दैवी शक्तियों के वाहक, बलवर्द्धक, पूर्णता तक पहुँचाने वाले, सेवन-योग्य
तथा देवगणों को आमंत्रित करने वाले हैं ॥८ ॥