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पूर्वभागे चाहरथोःध्याय:

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शात्ता घोराश्च पृढ्ारच विशेषास्तेन ते स्पृताः।

परस्परानुप्रवेज्ञाद्धारयन्ति परस्परम्‌॥ ३३॥

पर पर्वत उस परमात्मा उल्व { गभवेष्टनचर्भ्‌) हुआ।

समस्त पर्वत जरायु (खेड़ी) तथा समुद्र उनके गर्भोदक

शान्त, घोर और मृढ सभी भूत विशेष नाम से कहे गये | बने।

हैं। ये परस्पर अनुप्रवेश करके एक-दूसरे को धारण करते

हैं।

एते सप्त पहात्पानों ह्ान्योन्यस्थ सपाश्रयात्‌।

ताज्कनुवन्‌ प्रजा: सरहमसपागप्य कृत्सश:॥ ३४॥

तस्मिश्नण्डेडभवह्टि्त सदेवासुरमानुषम्‌।

चन्दर्रादित्यौ समक्षत्रौ सग्रहौ सह वायुना॥ ४ १॥

उस अण्ड से सत्कर्म करने वाले देव, असुर और मनुष्य

सहित यह विश्व तथा नक्षत्र, ग्रह और वायु सहित चन्द्र और

ये सातों महान्‌ आत्मा वाले एक दूसरे के आश्रित होकर | सूर्य को सृष्टि हुई।

हो रहते हैं। फिर भौ वे पूर्णतः प्रजा को सृष्टि करने में समर्थ

नहीं है।

पुरुषापिष्ठितत्वाच्च अव्यक्तानुप्रहेण च।

महदादयो विशेषान्ता हाण्डमुत्पादयन्ति ते॥३५॥

पुरुष के अधिष्ठित होने से तथा अव्यक्त के अनुग्रह से

वही महदादि से लेकर विशेष पर्यन्त सभी मिलकर इस

ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करते हैं।

एककालसपुत्पन्नं जलवुद्दुदवच्च तत्‌।

विशेषेष्योइण्डमभवद्ृहत्तदुदकेशयम्‌॥ ३ ६॥

एक काल में सपुत्पन्न वह (अण्ड) जल के बुलबुले के

समान था। (उपर्युक्त) विकर्षो मे मिलक वह वृहत्‌ अण्ड

हो गया और जल पे शयन करने वाला (उसके ऊपर) था।

तस्मिन्‌ कार्यस्य करणं संसिद्धं परमेप्ठिन:।

प्रकृते5ण्डे विवृद्धे तु क्षेत्रज़ो ग्रह्मसंज्ञित:॥ ३७॥

उसमें कायं का कारणरूप परसेष्ठी का प्राकृत अण्ड में

बुद्धि होने पर "ब्रह्म नाम कौ संज्ञा को प्राप्त क्षेत्रज्ञ की सिद्धि

हो गई।

स सै शरीरो प्रथमः स से पुरुष उच्यते।

आदिकर्ता स भूतानां ब्रह्मात्र समवर्त्तता। ३ ८॥

वही प्रथम शरोरधारौ प्रथम पुरुष कहा गया जाता है। वह

भृतो का आदिकर्ता ब्रह्मरूप ब्रह्मा सबके आगे वर्तित थे।

यपाहु: पुरुष हंसं प्रधानात्यरत: स्थितिम्‌)

हिरण्यगर्भं कपिलं एन्दोमूरतिं सनातनम्‌॥३९॥

जिसे प्रधान-प्रकृति से पर ( श्रेष्ठ) पुरुष तथा हंस कहते

हैं! उसे हिरण्यगर्भ, कपिल, सनातन झन्दोपूर्ति (वेदि)

कहते हैं।

भेरुरुल्वपभूत्तस्थ जरायुशापि पर्वता:।

गर्भोदक समुद्राक्ष तस्यासन्परमात्मन:॥ ४ ०॥

अद्धिईशगुणादिभक्ष वाह्यतोऽण्डं सपावृतम्‌।

आपो दशगुणेनैव तेजसा बाहातो दृताः॥४२॥

तेजोदशगुणेनैव याहतो यायुना युत्म्‌।

आकाशेनावृतो वायु: खं तु भूतादिनावृतम्‌॥ ४३॥

शरूतादिर्पहता तद्रदव्वकतेनावृत्रो पहा्‌।

एते लोका महात्मानः सर्वे तत्त्वाभिपानिनः॥ ४४॥

वसत्ति तत्र पुरुषास्तदात्मनो व्यवस्थिताः।

ईश्वरा योगघर्माणो ये चान्ये तत्वचिन्तकाः॥४५॥

सर्वज्ञा: शान्तरजसो तित्य॑ पुदितपानमाः।

एतौरावरणौरण्ड प्राकृतैः सप्तभिर्वृतम्‌॥ ४६॥

दस गुने जल से उस अण्ड का बाहरी भाग समावृत

हुआ। दस गुने तेज द्वारा जल का बाह्य भाग आवृत हुआ,

दस गुने वायु द्वारा तेज आबृत हुआ। इसौ प्रकार आकाश के

द्वारा वायु आवृत हुआ, भूतादि द्वारा आकाश आवृत हुआ,

भूतादि महत्‌ द्वारा आवृत्त हुआ एवं महत्‌ अव्यक्त द्वारा

आवृतं हुआ। ये सभी लोक उस स्थान मे तदात्मवान्‌ होकर

महात्मा तथा तत्त्वाभिमानी पुरुष रूप में वास करने लगे।

प्रभुत्वशाली योग्यपरायण, तत््वचिन्तक, सर्वर, रजोगुण

रहित एवं नित्य प्रसन्नचित्त- इन सात प्राकृते आवरणों से

अण्ड समावृत था।

एतावच्छ्यते वक्तं मायैषा गहना द्विजा:।

एकदयाधानिकं कार्य यन्मवा वीजमीरितप्‌॥ ४७॥

ह द्विनगण \ इतना हो कह सकते हैं कि यह साया अति

गहन है। यह सब प्रधान (प्रकृति) का कार्य है, जिसे मैंने

बीज कहा है।

प्रजापतेः परा पर्तिरितीयं वैदिकी श्रुतिः ॥

्रह्माण्डमेतत्मकलं सप्तलोकबलान्वितमृ॥ ४ ८॥

दवितीयं त्स्य देवस्व शरीरं परपेष्ठिनः।

हिरण्यगर्भो पगवान्‌ व्रह्मा यै कनकाण्डजः॥४९॥

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