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जाह्यपर्त ]

* व्यास-शिष्य महर्षि सुमन्तु एवे राजा झतानीकका संवाद, भविष्यपुराणकी महिमा + २९

कमभि प्रवृत्त छो जाते हैं। वह अव्यय परात्मा सम्पूर्ण चराचर

संसरको जायत्‌ ॐौर दायन दोनों अचस्थाओंद्वारा यार-यार

उत्पन्न और विनष्ट करता रहता है।

परमेश्वर कल्पके प्रारम्भे सृष्टि ओर कल्फ्के अन्तमें

प्रख्य करते हैं। कल्प परमेश्वरका दिन है। इस कारण

परमेश्वरके दिनमें सृष्टि और रात्रिम प्रल्य होता है । हे राजा

शतानीक ! अव आप काल-गणनाको सुनै--

अठारह निमेष (पलक गिरनेके समयकों निपेष कहते

हैं) की एक काष्टा होती है अर्थात्‌ जितने समयम अठारह बार

परूकोंका गिरना हो, उतने कालकों काष्टा कहते हैं। तौस

काष्ठा एक कला, तीस कल्त्रका एक- क्षण, बारह क्षणका

एक मुहूर्त, तीस मुहूर्तका एक दिन-रात, तीस दिन-रातका एक

महीना, दो महीनोंकी एक्‌ ऋतु, तीन ऋतुका एक आयन तथा

दो अयनोका एक वर्ष होता है। इस प्रकार सूर्यभगवानके द्वारा

दिन-रात्रिका काल-विभाग चेता है। सम्पूर्ण जीव रात्रिको

विश्राम करते हैं और दिनमे अपने-अपने कर्ममें प्रवृत्त होते हैं।

पितरोंका दिन-रात मनुष्योकि एक महीनेके बराबर होता

है अर्थात्‌ शुक पक्षमें पितरोकी रात्रि और कृष्ण पक्षमे दिन

होता है। देवताओंका एक अहोरात्र (दिन -यत) मनुष्योंके एक

वर्षके बरायर होता है अर्धात्‌ उत्तरायण दिन तथा दक्षिणायन

शात्रि कही जाती है । हे राजन्‌ ! अब आप ब्रह्माजीके रात-दिन

और एक-एक युगके प्रमाणको सूनँ-- सत्ययुग चार हजार

कर्षका है, उसके संध्यांशके चार सौ वर्ष तथा संध्याके चार

सौ वर्ष मिल्त्रकर इस प्रकार चार हजार आठ सौ दिव्य वर्षोका

एक सत्ययुग होता है । इसी प्रकार त्रेतायुग तीन हज़ार वर्षोंका

तथा संध्या और संध्यांडाके छः सौ वर्ष कुल तीन हजार छः सौ

वर्ष, द्वापर दो हजार वर्धोका संध्या तथा संध्यांशके चार सौ वर्ष

कुल दो हजार चार सौ वर्ष तथा कलियुग एक हजार वर्ष तथा

संध्या और संध्यांशके दो सौ वर्ष मिल्म्रकर बारह सौ वकि

मानका होता है। ये सब दिव्य वर्ष मिलाकर बारह हजार दिव्य

वर्ष होते हैं। यही देवताओंका. एक युग कहत्वता है ।

दवताओंके हजार युग होनेसे ग्रह्माजीका एक दिन होता

है और यही प्रमाण उनकी ग़त्रिका है। जब ब्रह्माजी अपनी

शात्रिके अन्तम सोकर उठते हैं तव सत्‌-असत्‌-रूप मनक

उत्पन्न करते है । वह मन सृष्ट करनेकी इच्छसे विकारवर प्रा

होता है, तब उससे प्रथम आकादा-तत्व उत्पन्न होता है ।

आकाइक् गुण दाव्ट कहा गया है । विकारयुक्त आकारासे

सब प्रकारके गन्धको कहन करनेवाले पवित्र वायुकी उत्पत्ति

होती है, जिसका गुण स्पर्श है । इसी प्रकार किकारवान्‌ वायुसे

अन्धकारका नाश करनेवाला प्रकाशयुक्त तेज उत्पत्र होता है,

जिसका गुण रूप है | विकारवान्‌ तेजसे जल, जिसका गुण रस

है और जलसे गन्धगुणवास्त्र पृथ्वी उत्पन्न होती है। इसी प्रकार

सृष्टिका क्रम चलता रहता है।

पूर्वम बारह हजार दिव्य वर्षोंका जो एक दिव्य युग

बताया गया है, वैसे हो एकह॒त्तर युग होनेसे एक मन्वन्तर होता

है। ब्रह्मजोके एक दिनमें चौदह गन्वन्तर व्यतीत होते है ।

सत्ययुगमें धर्मके चारों पाद वर्तमान रहते हैं अर्थात्‌

सत्ययुगमें धर्म चारों चरणोंसे (अर्थात्‌ सर्वाद्गपूर्ण) रहता है।

फिर तरेता आदि युगोंमें धर्मका यल घटनेसे धर्म क्रमसे

एक-एक चरण घटता जाता है,-- अर्धात्‌ त्रेतामें धर्मके तीन

चरण, ट्वापरमें दो चरण तथा कलियुगे धर्मका एक ही चरण

यचा रहता है और तीन चरण अधर्मके रहते हैं। सत्ययुगके

१-एक संक्रमे दूसते सूर्य-संक्रान्तितकके समयक स्वैर मास कहते हैं। बारह स्थैः मायो एक तैर वर्षं ए ता है और मनुष्य "मा

यही एक सौर वर्ष देवताओंका एक अहोन्न छोता है । ऐसे हो तोस अहोराजोंका एक घास हर बारह मासतेक एक दिव्य वर्ष होता है।

दोनों संध्याऑसहित युगोका मान

ई-सह्फ्पुगका ग्छन

२-जैतायुगकय मात

३-द्वाफयुगका मात

४-कलियुगका पान

महायुग या एक यतुर्पुगी--

दिख्य वर्षोपि

४,८००

३3,६००

२७४००

१,२००

६२,०००

सौर क्योंधि

१७,२८,२०१

१२.९६.०५५

€&.,दैड २००

५,३२.४०८

ड३,र२ै० ,०० वर्ष

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