अध्याय ७]
होते हैं, वे भगवान् गदाधर धर्म एवं मोक्षकी
कामनासे अधीर हुए मुझको धैर्य प्रदान करनेकी
कृपा करें। जिस दयामय प्रभुने दुःखरूपी जल-
जन्तुओं एवं मृत्युरूप ग्राहके भयंकर आक्रमणोंसे
संसार-सागरमें थपेड़े खाकर डूबते हुए मुझ
दीन-हीन प्राणीका विशाल जलपोत बनकर
उद्धार कर दिया, उन भगवान् गदाधरको मैं
प्रणाम करता हूँ। जो स्वयं महाकाशमें घटाकाशकी
व्याप्तिकी भाँति अपने द्वारा अपनेमें ही तीन
मूर्तियोंमें अभिव्यक्त होते हैं तथा अपनी
मायाशक्तिका आश्रय लेकर इस ब्रह्माण्डकी
सृष्टि करते हैं एवं उसीमें कमलासन ब्रह्माके
रूपमे प्रकटित होकर तेजस् आदि तत्त्वोंका
प्रादर्भाव करते हैं, उन जगदाधार भगवान्
गदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ। जो मत्स्य-
कच्छप आदि अवतार ग्रहण करके देवताओंकी
रक्षा करते हैं, जिनकी जगत 'वृषाकपि' के
नामसे प्रसिद्धि है, वे यज्ञवराहरूपी भगवान्
गदाधर मुझे सद्गति प्रदान करें।*
भगवान् वराह कहते ई पृथ्वि! मुनिवर
रैभ्य महान् बुद्धिमान् थे। जब उन्होंने इस प्रकार
भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी स्तुति की तो भगवान्
गदाधर सहसा उनके सामने प्रकट हो गये।
+ पैभ्य-सनत्कुमार-संबाद, गयामें पिण्डदानकी महिमा *
२१
उनका श्रीविग्रह पीताम्बरसे शोभायमान था। वे
गरुडपर स्थित थे तथा उनकी भुजाएँ शङ्ख,
चक्र, गदा एवं पद्यसे अलंकृत थीं । वे भगवान्
पुरुषोत्तम आकाशम ही स्थित रहकर मेघके
समान गम्भीर वाणीमें बोले--' द्विजवर रैभ्य!
तुम्हारी भक्ति, स्तुति एवं तीर्थ-स्नानसे मैं संतुष्ट
हो गया हूँ। अब तुम्हारी जो अभिलाषा हो,
बह मुझसे कहो ।'
भैभ्यने कहा -- देवेश्वर! अब मुझे उस लोकमें
निवास प्रदान कीजिये, जहाँ सनक~-सनन्दन आदि
मुनिजन रहते हैं। भगवन्! आपको कृपासे में
उसी लोकमें जाना चाहता हूँ।
श्रीभगवान् बोले--' विप्रश्रेष्; बहुत ठीक,-
ऐसा ही होगा।' ऐसा कहकर भगवान् अन्तधान
हो गये। फिर तो प्रभुके कृपाप्रसादसे उसी क्षण
भैभ्यको दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया और वे परम
सिद्ध सनकादि महर्षि जहाँ निवास करते हैं, उस
लोकको चले गये।
भगवान् श्रीहरिका यह गदाधर-स्तोत्र रभ्य
मुनिके मुखसे उच्चरित हुआ है। जो मनुष्य
गयातीर्थमें जाकर इसका पाठ करेगा, उसे पिण्डदानसे
बढ़कर फलको प्राप्ति होगी।
(अध्याय ७]
(त
* गदाधरं विशुधजनैरभिषु्त॑ धुतश्वमं श्रुधितजनार्तिनाशनम् । शिवं विशालासुरसैन्यमर्दनं नमाम्यहं इतसकलाजुभं स्मृतौ ॥
पुराणपूरवं पुरुषं पुरुष्टुतं पुरातनं विमलमलं नृणां गतिम् । त्रिविक्रमं इतधरणि बलोर्जितं गदाधां रहमि नमामि केशवम् ४
विजुद्धभाव॑ विभवैकपावृतं श्रिया कुततं विगतमल विचक्षणम् । क्षितौ श्वौरपगतकिल्जिपै- स्तुतं गदाधरं प्रणयति यः सुखं चसेत्॥
सुणसुरैशचितपादपडूर्ज केयूरहारज्दसौलिधारिणम् । अन्धौ शयानं च रथाक्षपाणिन गदाधरं प्रणयति यः सुखं षेत् ॥
सितं कृते कैतयुगेऽरुणं विभुं तथा तृतोये नोलसुषर्णमच्युतम् । कल्यौ युगेऽलिप्रतियं महे श्रं गदाधरं प्रणमति यः सुखं वसेत् ॥
बोजोद्धयो य: सृजते चतुमुंखं तथैव नारादणरूपतो जगत् । प्रपालयेद् रद्रवपुस्तघान्तकृद्गदाधरो जयतु षडर्द्मूर्तिमा]् ॥
सत्वं रजकचैव तमो गुणास्त्रसस्त्येतेषु विश्वस्य समुदभवः क्लि । स चैक एय जिचिधो मदाधरो दधातु थैय॑ मम धर्ममोभयोः॥
संप्तारतोयार्णवदु:खान्तुभिर्षियोगतक्रक्रमणै: सुभीषणैः । मज्जन्तमुच्यैः सुतरां महाप्लवों गदाधरों मानुदधौ तु यो5तरत्॥
स्वयं त्रिमूर्ति: खमिवात्मनात्मनि स्वशक्तितक्षाण्डमिद ससर्ज ह । तसम्मिजलोत्थासनमाष तैजसं ससर्ज यस्त॑ प्रणतोऽस्मि भूधरम्॥
भत्स्यादिनामाति जगत्सु चाश्नुते सुरादिसंरक्षणतों यूषाकपि: । सखस्थरूपेण स संततो खिभुगदाघरों मे विदधातु सदगतिय्॥
(अध्याय ७ ¦ ३१४०)