Home
← पिछला
अगला →

अध्याय ७ ]

मार्कण्डेयजीके द्वारा तपस्यापूर्वक श्रीहरिकी आराधना; ' मृत्युञ्जय -स्तोत्र का पाठ २९

सातवाँ अध्याय >

मार्कण्डेयजीके द्वारा तपस्यापूर्वक श्रीहरिकी आराधना; 'मृत्युक्लय-स्तोत्र 'का पाठ और

मुत्युपर लिजय प्राप्त करना

क्रीपपदाज गकाव

मार्कण्डेयेन मुनिना कथं पत्युः पराजितः।

एतदाख्याहि मे सूत त्वयैतत्‌ सूचितं पुरा॥ ९

डद ज्वाच

इदं तु महदाख्यानं भरद्वाज शृणुष्व मे।

शृण्वन्तु ऋषयश्चेमे पुरावृत्तं अयीम्यहम्‌॥ २

कुरुक्षेत्रे महापुण्ये व्यासपीठे वराश्रमे।

तत्रासीनं मुनिवरं कृष्णद्रैपायनं मुनिम्‌॥ ३

कृतस्नानं कृतजपं मुनिशिष्य: समावृतप्‌।

वेदवेदार्थतत्तवजञ सर्वशास्त्रविशारदम्‌॥ ४

प्रणिपत्य यथान्यायं शुकः परमधार्मिकः।

इममेवार्थमुदिश्य तं पप्रच्छ कृताञ्जलिः ॥ ५

यमुद्दिश्य वयं पृष्टास्त्वयात्र मुनिसंनिधौ ।

नरसिंहस्य भक्तेन कृततीर्थनिवासिना॥ ६

आशक उकच

मार्कण्डेयेन मुनिना कथं मूत्युः पराजितः।

एतदाख्याहि मे तात श्रोतुमिच्छपि तेऽधुना ॥ ७

व्यस्त उनाय

पार्कण्डेयेन मुनिना यथा मृत्यु: पराजितः।

तधा ते कथयिष्यामि शृणु वत्स महामते॥ ८

शृण्वन्तु मुनयश्चेमे कथ्यमानं पयाधुना ।

मच्छिष्याश्चैव भुण्वन्तु महदाख्यानपुत्तमम्‌॥ ९

श्रीभरद्राजजी ओले--सूतजी! मार्कण्डेयमुतिते

मृत्युकों कैसे पराजित किया ? यह मुझे बताइये। आपने

पहले यह सूचित किया था कि वे मृत्युपर विजयी हुए

थे*॥१॥

सूतजी बोले--भरद्वाजजी! इस महान्‌ पुरातनं

इतिष्टासको आप और ये सभौ ऋषि सुनें; ये कह रहा

हूँ। अत्यन्त पवित्न कुरुक्षेत्रमें, व्यासपोठपर, एक सुन्दर

आश्रममें स्नान तथा जप आदि समाप्त करके व्यासासनपर

बैठे हुए और शिष्यभूत युतियोंसे घिरे हुए मुनिवर महर्षि

कृष्णड्रैपायनसे, जो येद और वेदार्थोके तत्त्ववेत्ता तथा

सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ थे, परम धर्मात्मा शुकदेवजीने

हाथ जोड़ उन्हें यधोचितरूपसे प्रणाम कर इसो विषयो

जाननेके लिये प्रश्न किया था, जिसके लिये कि इन

सुनि्योके निकट आप पुण्पतीर्थनिवासों तृसिंहभक्तने मुझसे

पूछा है॥ २--६॥

श्रीशुकदेवजी ओले--पिताजी ! मार्कण्डेय मुनिने

मृत्युपर कैसे विजय पायौ ? यह कथा कहिये। इस समय

मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ॥७॥

व्यासजी बोले--महामते पुत्र! मार्कण्डेय भुनिने

जिस प्रकार मृत्युपर विज॒य पायी, वह तुमसे कहता हूँ,

सुनो। मुझसे कहे जानेवाले इस महान्‌ एवं उत्तम

उपाख्यानको ये सभी मुनि और मेरे शिष्यगण भी सूरें।

“77775 क्स नरसेहपुणलके गत अप्यो साकण्डेसओक् नाम कहो चत पक है। परत: ज क्त्रः सूचित छनन

ल्वयैतत्‌ सूचित पुश) ' गत्यादि कथकर कोई संगति नहीं प्रतीत होली, त्वपि प्रथम अध्याफके वदाय शलोकम इस बालकों सूचता

म्तौ है कि भगदवाशजोने सूतजोके मुझसे पहले ' काराहीसं देता ' सुवौ धौ, उसके बाद उक्ौने " बधिहसंहिता ' मुजनेकी इच्छा प्रकर

को । एय दूतजोने 'तरसिंहसंहिता' खुबावा आरम्भ किया धा। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जाराहोसंहिता-अबणके

संयतः धरद्राजजोकों सृतजीके मुखसे झ्ार्कण्डेयजीके भुर विजय पानके इतिहारूकोों कोटं सूचना प्राप्त दुईं हो, जिसका स्मरण

#्होंपे यहाँ दिलागा है।

← पिछला
अगला →