Home
← पिछला
अगला →

---श्द>

हि

¬ {9

< &3:० 2 ऊ >)

= +

सामवेद-संहिता

पूर्वार्चिकः (छन्द आर्चिकः)

॥ आग्नेयं पर्व ॥

।॥ अथ प्रथमोऽध्यायः ॥

॥ प्रथम: खण्ड: ॥

१. अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये । नि होता सत्सि बर्हिषि ॥९ ॥

हे प्रकाशक एवं सर्वव्यापक अग्निदेव ! हवि को गति देने (वीति) के लिए आप पधार । आपकी सव स्तुति

करते हैं। यज्ञ में हम आपका आवाहन करते हैं; क्योंकि आप सव्र पदार्थो को प्रदान करने वाले हैं ॥६ ।,

२. त्वमग्ने यज्ञानां होता विश्वेषां हितः । देवेभिर्मानुषे जने ॥२॥

है अग्ने आप सस्त देव शक्तियो को एकत्रित करते हैं, जिनकी उपस्थिति यज्ञो मे अनिवार्य मानी गई

है । सभी देवगणों के द्वारा जनमानस के मध्य आपको प्रतिष्ठित किया जाता है ॥२ ॥

३. अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्‌ । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम्‌ ॥३ ॥

हे सर्वज्ञाता ! आप यज्ञ के विधाता है समस्त देव शक्तियों को तुष्ट करने की सामर्थ्य रखते र । आप यज्ञ

की विधि-व्यवस्था के स्वामी हैं-- ऐसे समर्थ आपको देवदूत रूप में हम स्वीकार करते हैं ॥३ ॥

४. अम्निर्वत्राणि जङ्घनद्‌. द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥४॥

उनके सत्यासो से प्रसन्‍न होकर याजकं को सम्पन्नता प्रदान करने वाले हे प्रदीप्त अग्निदेव ! हमें बन्धन

में रखने वाली दुष्टवृत्तियों का आप विनाश करें ॥४ ॥

५. प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम्‌ । अग्ने रथं न वेद्यम्‌ ॥५॥

हे अग्ने ! उपासको की अभिलाषा पूरी करने वाले, सदा सब पर कृषा करने वाले, भित्र के समान व्यवहार

करने वाले आप हमारी प्रार्थना से प्रसन हों ॥५ ॥

६. त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मर्त्यस्य ॥६ ॥

हे अग्ने ! संसार के, द्वेष करने वाले व्यक्तियों एवं शत्रुओं से आप हमारी रक्षा करें और विषम परिस्थितियों

में हमे धैर्यवान्‌ बनायें ॥६ ॥

७. एड्रूपु ब्रवाणि तेऽग्न इत्थेतरा गिर: । एभिर्वर्धास इन्दुभिः ॥७ ॥

हम आपके लिए ही स्तुति करते है, अपि इन्हें सुने प्रकट हो ओर इस सोमरस से अपनी महानता का

विस्तार करें ॥७ ॥

← पिछला
अगला →