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यदा चैतैः प्रबाध्यन्ते तेषा ये काननौकसः ।
तदा सिंहादिरूपैस्तान्धातयन्ति पहीधराः । ३५
गिरियज्ञस्त्वयं॑तस्माद्रोयज्ञश्च प्रवर्त्यताम् ।
किमस्माकं महेनदरेण गावददौलाश्च देवताः ॥ ३६
मन्तरज्तपरा विप्रास्सीरयन्ञाश्च कर्षकाः ।
गिरिगोयज्ञीलाश्च वयमद्विवनाश्रयाः ॥ ३७
तस्माद्रवर्धनददौलो भवद्धिर्विविधार्हणैः ।
अर्चयतां पूज्यतां मेध्यान्पशुन्हत्वा विधानतः ॥ ३८
सर्वघोषस्य सन्दोहो गृह्यतां मा विचार्यताम् ।
भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाञ्छकाः ॥ ३९
तत्राति कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।
शरत्पुष्पकृतापीडा: परिगच्छन्तु गोगणाः ॥ ४०
एतन्यम मतं गोपास्सम्परीत्या क्रियते यदि ।
ततः कृता भवेत्मीतिर्गवामद्रेस्तथा मम ॥ ४१
श्रीपरङर उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्ते व्रजौकसः ।
प्रीत्युत्फुल्लमुखा गोपास्साधुसाध्वित्यथा्ुवन् ॥ ४२
शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्धवतोदितम् ।
तत्करिष्यामहे सर्व गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम् ॥ ४३
तथा च कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।
दधिपायसमांसा्ैरददुदहौलवलिं ततः ॥ ४४
द्विजाश्च भोजयामासुरडातश्षोऽथ सहस्रन्लः ॥ ४५
गावदहौलं ततश्चक्रुरर्चितास्ताः प्रदक्षिणम् ।
वृचभाश्चातिनर्दन्तस्सतोया जलदा इव ॥ ४६
गिरिमूर्धनि कृष्णोऽपि दौलत्रोऽहमिति पूर्तिमान् ।
बुभुजेऽन्नं बहुतरं गोपवर्याहितं द्विज ॥ ४७
स्वेनैव कृष्णो रूपेण गोपैस्सह गिरेहिद्वार: ।
अधिरुह्वार्चयामास द्वितीयामात्पनस्तनुप् ॥ ४८
अन्तर्द्धानं गते तस्पिन्गोपा लब्ध्वा ततो वरान् ।
कृत्वा गिरिमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः ॥ ४९
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(इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) दै । वे मनोब्राज्छित रूप
धारण वरके अपने-अपने शिखरोंपर विहार किया करते
है ॥ ३४ । जब कभी वनसासीगण इन गिरिदेवॉको किसी
तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार
डालते हैं॥ ३५ ॥ अतः जसे [ इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें ]
गिर्यिज्ञ अथवा गोयइ्का प्रचार होना चाहिये। हमें हन्द्रसे
क्या प्रयोजन है? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही
हैं ॥ ३६ ॥ ऋ्छणलेग मन्-यज्ञ तथा कृषकगण सौरयज्ञ
(हलका पूजन) करते हैं, अतः पर्वत और बनोंमें रहनेवाले
हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये॥ ३७ ॥
“अतएव आपलोग विधिपूर्वकं मेध्य पशुओंकी बलि
देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी पूजा करें ॥ ३८ ।
आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों
तथा अन्यान्य याचन्नेजतरे भोजन कराओ; इस विषयमे और
अधिक सोय-चिचार् मत करो ॥ ३९ ॥ गोवर्धनकी पूजा,
होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर दरद-ऋतुके पुष्पोंसे
सजे हुए मस्तकवाली गौ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें ॥ ४० ॥
हैं गोपगण ! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वकं मेरी इस सम्मतिके
अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिणज और मुझको
अह्क्त प्रसन्नता होगी” ॥ ४१॥
श्रीपराशस्जी योले-- कष्णचद््रके इन वाक्योंको
सुनकर नन्द् आदि व्रजबासी गोपनि प्रसप्नतासे शिले हुए
मुखसे "साधु. साधु' कहा ॥ ४२ ॥ और बोले--हे वत्स !
तुमने अपना जो बिचार प्रकर किया है वह बड़ा हो सुन्दर है;
हम सब ऐसा हो करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय ॥ ४३ ॥
तदनन्तर उन त्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया
तथा दही, खीर और मांस आदिमे पर्वतराजकों बलि
दी ॥ ४४ ॥ सैकड़ों, हजाएों ब्राहणोंकों भोजन कया तथा
पष्पार्थित गौओं और सजल जलघस्के समान ग्जनिवाले
सॉड़ोंन गोबर्धनकी परिक्रमा की । ४५-४६ ॥ हे द्विज ! उस
समय कृष्णयनद्रन पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर
| यह दिखल्ाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपन्रेष्ठोकि
चढ़ाये हुए विविध न्यञ्जनोको ग्रहण किया॥४७॥
कृष्णचद्धने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके
रिखरपर चढ़कर अपने हो दूसरे स्वरूपका पूजन
किया ॥ ४८ ॥ तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण
अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-
अपने गोष्ठोंमें चफ़े आये || ४९ ॥
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इति श्रीविष्णुपुराणे ००५ दज्ामोऽध्यायः ॥ १० ॥