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३३८

यदा चैतैः प्रबाध्यन्ते तेषा ये काननौकसः ।

तदा सिंहादिरूपैस्तान्धातयन्ति पहीधराः । ३५

गिरियज्ञस्त्वयं॑तस्माद्रोयज्ञश्च प्रवर्त्यताम्‌ ।

किमस्माकं महेनदरेण गावददौलाश्च देवताः ॥ ३६

मन्तरज्तपरा विप्रास्सीरयन्ञाश्च कर्षकाः ।

गिरिगोयज्ञीलाश्च वयमद्विवनाश्रयाः ॥ ३७

तस्माद्रवर्धनददौलो भवद्धिर्विविधार्हणैः ।

अर्चयतां पूज्यतां मेध्यान्पशुन्हत्वा विधानतः ॥ ३८

सर्वघोषस्य सन्दोहो गृह्यतां मा विचार्यताम्‌ ।

भोज्यन्तां तेन वै विप्रास्तथा ये चाभिवाञ्छकाः ॥ ३९

तत्राति कृते होमे भोजितेषु द्विजातिषु ।

शरत्पुष्पकृतापीडा: परिगच्छन्तु गोगणाः ॥ ४०

एतन्यम मतं गोपास्सम्परीत्या क्रियते यदि ।

ततः कृता भवेत्मीतिर्गवामद्रेस्तथा मम ॥ ४१

श्रीपरङर उवाच

इति तस्य वचः श्रुत्वा नन्दाद्यास्ते व्रजौकसः ।

प्रीत्युत्फुल्लमुखा गोपास्साधुसाध्वित्यथा्ुवन्‌ ॥ ४२

शोभनं ते मतं वत्स यदेतद्धवतोदितम्‌ ।

तत्करिष्यामहे सर्व गिरियज्ञः प्रवर्त्यताम्‌ ॥ ४३

तथा च कृतवन्तस्ते गिरियज्ञं व्रजौकसः ।

दधिपायसमांसा्ैरददुदहौलवलिं ततः ॥ ४४

द्विजाश्च भोजयामासुरडातश्षोऽथ सहस्रन्लः ॥ ४५

गावदहौलं ततश्चक्रुरर्चितास्ताः प्रदक्षिणम्‌ ।

वृचभाश्चातिनर्दन्तस्सतोया जलदा इव ॥ ४६

गिरिमूर्धनि कृष्णोऽपि दौलत्रोऽहमिति पूर्तिमान्‌ ।

बुभुजेऽन्नं बहुतरं गोपवर्याहितं द्विज ॥ ४७

स्वेनैव कृष्णो रूपेण गोपैस्सह गिरेहिद्वार: ।

अधिरुह्वार्चयामास द्वितीयामात्पनस्तनुप्‌ ॥ ४८

अन्तर्द्धानं गते तस्पिन्गोपा लब्ध्वा ततो वरान्‌ ।

कृत्वा गिरिमखं गोष्ठं निजमभ्याययुः पुनः ॥ ४९

ब आओविष्णुपुराणा __(अ" १०

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(इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) दै । वे मनोब्राज्छित रूप

धारण वरके अपने-अपने शिखरोंपर विहार किया करते

है ॥ ३४ । जब कभी वनसासीगण इन गिरिदेवॉको किसी

तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार

डालते हैं॥ ३५ ॥ अतः जसे [ इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें ]

गिर्यिज्ञ अथवा गोयइ्का प्रचार होना चाहिये। हमें हन्द्रसे

क्या प्रयोजन है? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही

हैं ॥ ३६ ॥ ऋ्छणलेग मन्-यज्ञ तथा कृषकगण सौरयज्ञ

(हलका पूजन) करते हैं, अतः पर्वत और बनोंमें रहनेवाले

हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये॥ ३७ ॥

“अतएव आपलोग विधिपूर्वकं मेध्य पशुओंकी बलि

देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी पूजा करें ॥ ३८ ।

आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों

तथा अन्यान्य याचन्नेजतरे भोजन कराओ; इस विषयमे और

अधिक सोय-चिचार्‌ मत करो ॥ ३९ ॥ गोवर्धनकी पूजा,

होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर दरद-ऋतुके पुष्पोंसे

सजे हुए मस्तकवाली गौ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें ॥ ४० ॥

हैं गोपगण ! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वकं मेरी इस सम्मतिके

अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिणज और मुझको

अह्क्त प्रसन्नता होगी” ॥ ४१॥

श्रीपराशस्जी योले-- कष्णचद््रके इन वाक्योंको

सुनकर नन्द्‌ आदि व्रजबासी गोपनि प्रसप्नतासे शिले हुए

मुखसे "साधु. साधु' कहा ॥ ४२ ॥ और बोले--हे वत्स !

तुमने अपना जो बिचार प्रकर किया है वह बड़ा हो सुन्दर है;

हम सब ऐसा हो करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय ॥ ४३ ॥

तदनन्तर उन त्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया

तथा दही, खीर और मांस आदिमे पर्वतराजकों बलि

दी ॥ ४४ ॥ सैकड़ों, हजाएों ब्राहणोंकों भोजन कया तथा

पष्पार्थित गौओं और सजल जलघस्के समान ग्जनिवाले

सॉड़ोंन गोबर्धनकी परिक्रमा की । ४५-४६ ॥ हे द्विज ! उस

समय कृष्णयनद्रन पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर

| यह दिखल्ाते हुए कि मैं मूर्तिमान्‌ गिरिराज हूँ, उन गोपन्रेष्ठोकि

चढ़ाये हुए विविध न्यञ्जनोको ग्रहण किया॥४७॥

कृष्णचद्धने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके

रिखरपर चढ़कर अपने हो दूसरे स्वरूपका पूजन

किया ॥ ४८ ॥ तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण

अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-

अपने गोष्ठोंमें चफ़े आये || ४९ ॥

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इति श्रीविष्णुपुराणे ००५ दज्ामोऽध्यायः ॥ १० ॥

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