कह अशर्ववेद संहिता भाग-र
२२७०. सोदक्रामत् सान्तरिक्षे चतुर्धा विक्रान्तातिष्ठत् ॥९ ॥
उस विराट् शक्ति ने पुनः उत्वान किया और वह अन्तरिक्ष में चार प्रकार से विभाजित होकर स्थित हुई ॥१ ॥
२२७१. तां देवमनुष्या अब्बुवश्नियमेव तद् वेद यदु भय उपजीवेमेमामुप ह्वयामहा इति ॥
देवो और मनुष्यों ने उसके सम्बन्ध में कहा कि वे इसे जानते है जिससे हम दोनों जीवन- निर्वह को प्राप्त
करते हैं, अतएव हम इसे बुलाते दै ॥२ ॥
२२७२. तामुपाह्नयन्त ॥३ ॥
तब उन्होंने उसे आवाहित किया ॥३ ॥
२२७३. ऊजं एहि स्वध एहि सूनृत एहीरावत्येहीति ॥४ ॥
है ऊर्जा देवि ! हे पितरजनों की तृष्तिप्रदा स्वधे ! हे प्रिय वाणौरूप । हे अन्नवालौ ! आप यहाँ आएँ ॥४ ॥
२२७४. तस्या इन्द्रो वत्स आसीद् गायत्यभिधान्यभ्रमशः ॥५ ॥
इन्द्रदेव उसके वत्स वने, गायत्री रस्सी थी ओर मेव दुग्ध स्थल रूप हुए ॥५ ॥
२२७५. बृहच्च रथन्तरं च द्रौ स्तनावास्तां यज्ञायज्ञियं च वामदेव्यं च द्धौ ॥६ ॥
बृहत्साम और रथन्तरसाम दोनों स्तनरूप हुए तथा यज्ञायज्ञिय और वामदेव्यसाम भी दोनों स्तनरूप ही हुए ।
२२७६. ओषधीरेव रथन्तरेण देवा अदुहन् व्यचो बृहता ॥७ ॥
देव शक्तियों ने रथन्तरसाम से ओषधियों का और बृहत्साम से व्यापक आकाश के रस का दोहन किया ॥७ ॥
२२७७. अपो वामदेव्येन यज्ञं यज्ञायज्ियेन ॥८ ॥
वामदेव्य साम से जल और यज्ञायज्ञिय साम से यज्ञ विज्ञान को निकाला ॥८ ॥
२२७८. ओषधीरेवास्मै रथंतरं दुहे व्यचो बृहत् ॥९ ॥
जो इसके ज्ञाता है रथन्तरसाम उनके लिए ओषधियाँ देते हैं औरबृहत्साम अन्तरिश्च का दोहन करते हैं ॥९ ॥
२२७९. अपो वामदेव्यं यज्ञं यज्ञायज्ञियं य एवं वेद ॥१० ॥
जो इस के ज्ञाता है, उनके लिए वामदेव्यमाम जल और यज्ञायज्ञियसाम यज्ञ-विज्ञान को दुहते है ॥१० ॥
[ १२-विराद् सूक्त (१०-ग) ]
[ ऋषि- अधर्वाचार्य । देक्ता-विराट् । छन्द -१-चतुष्पदा विराट अनुष्टुप्, २ आची त्रिष्टुपु, ३, ५, ७ चतुष्पदा
प्राजापत्या पंक्ति, ४, ६, ८ आची बृहती ॥]
२२८०. सोदक्रामत् सा वनस्यतीनागच्छत् तां वनस्थतयोऽघ्नत सा संवत्सरे समभवत् ॥
विरार् शक्ति पुनः उत्थान करके वनस्पतियो के समीप पहुँची, उसे वनस्पतियों > भोगा । वह संवत्सर में
उनके साथ एक रूप हुई ॥१ ॥
२२८१. तस्माद् वनस्पतीनां संवत्सरे वृक्णमपि रोड़ति
वृश्चतेऽस्याप्रियो भ्रातृव्यो य एवं वेद ॥२ ॥
अतएव वनस्पतियो के कटे हुए भाग भी एक संवत्सर मे पुनः उग आते है । जो इसके ज्ञाता है, उनके दुष्ट
(अप्रिय) शत्रु विनष्ट हो जति है ॥२ ॥