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* पुराणं परम॑ पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ चै

[ संक्षिप्त धविष्यपुराणाङ्ख

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पुष्यशालौ जम्बूमार्ग (भड़ौच) में नामग्रतधरा नामक पर्वतके

टैटाबि नामक रमणीय शिखरपर भगवान्‌ शंकरके दर्शन

करनेकी इच्छसे करोड़ों मुनिगण तपस्या कर रहे चे । वह

तपोवन अतुलनीय दिव्य काननोंसे मष्डित था। वह महर्षि

भूगुका आश्रममष्डलं था। विविध मृगगण और बंदरोंसे

समन्वित था। सिंह आदि सभी जंगली पशु, आनन्दपूर्वक

निर्भय होकर वहाँ साथ-साथ ही निवास करते थे। उन

तपस्थारत मुनियोंको दर्शन देनेके व्याजसे भगवान्‌ शंकरने एक

वृद्ध आह्णका वेश बना लिया। जर्जर-देहवाले ये वृद्ध

ब्राह्मण हाथमें डंडा लिये कंपते हुए उस स्थानपर आये।

जगन्याता पार्वती भी सुन्दर सवत्सा गौका रूप धारणकर वहाँ

उपस्थित हुईं।

पार्थं ! गौका जो स्वरूप है, उसे आप सुनें--प्राचीन

क्लमे क्षीससागरके मन्थनके समय अमृतके साथ पाँच गौएँ

उतत हन्द सुरा, सभ, सुशीला तथा बहला ए

लोकमाता कहा गया है । इनका आविर्भाव लोकोपकार तथा

देवताओंकी तृप्तिके लिये हुआ है । देवताओनि अभीष्ट

कामनाऑकी पूर्ति करनेवाली इन पाँच गौ ओको महर्षि

किया और इन महाभागोनि इन ग्रहण किया । गौओकि छः

अङ्ग-- गोमय, रोचना, मूत्र, दुग्ध, दधि और घृत--ये

अत्यन्त पवित्र और संशुदिके साधन भी है। गोमयसे

शिवप्रिय श्रीमान्‌ बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ, उसमे पद्महस्ता

श्रीलक्ष्मी विद्यमान हैं, इसीलिये इसे श्रीवृक्ष कहा जाता है ।

गोमयसे ही कमलके बीज उत्पन्न हुए है । गोरोचन अतिशय

मङ्गलमय है, यह पवित्र और सर्वार्थसाधक है। गोमूत्रसे

गुग्युलकी उत्पत्ति हुई है, जो देखनेमें प्रिय और सुगन्धियुक्त है।

यह गुग्गुल सभी देवॉक्य आहार है। विशेषरूपसे शिवका

आहार है। संसारम जो कुछ भी मूलभूत बीज हैं, वे सभी

गोदुग्घसे उत्पन्न हैं। प्रयोजनकी सिद्धिके लिये सभी माङ्गलिक

पदार्थ दधिसे उत्पन्न हैं। घृतसे अमृत उत्पन्न होता है, जो

देवॉकी तृप्तिका साधन है । ब्राह्मण और गौ एक ही कुलके दो

भाग हैं। ऋह्मणोकि हृदयमें तो वेदमन्त्र निवास करते हैं और

गौओंकि हृदयमें हवि रहती है। गायसे ही यज्ञ प्रवृत्त होता है

और गौमें ही सभी देवगण प्रतिष्ठित हैं। गायमें ही छः

अङ्गोसषित सम्पूर्ण वेद समाहित है" ।

गौओके सीगकी जड़में सदा ब्रह्मा और विष्णु प्रतिष्ठित

है । शूङ्गके अग्रभागमें सभी चरचर एवं समस्त तीर्थ प्रतिष्ठित

हैं। सभी कारणोके कारणस्वरूप महादेव शिव मध्यमे प्रतिष्ठित

है । गौके ललाटमे गौरी, नासिकामें कार्तिकेय और नासिकाके

दोनों पुम कम्बल तथा अश्वतर ये दो नाग प्रतिष्ठित है । दोनों

कानमे अधिनीकुमार, नेभे चन्र और सूर्य, दाँतोंमें आये

वसुगण, जिद्धामे वरुण, कुहरमें सरस्वती, गण्डस्थलोमें यम

और यक्ष, ओष्ोमे दोनों संध्याएँ, ग्रीकामे इन्र, ककुद्‌ (मौर)

में राक्षस, पा््णि-भागमे चौ और जंघाओमिं चारो चरणोंसे धर्म

सदा विराजमान रहता है। खुरोंके मध्यमें गन्धर्व, अग्रभागमें

सर्प एवं पश्चिम-भागमें राक्षसगण प्रतिष्ठित हैं। गौके पृष्ठदेशमें

एकादश रुद्र, सभी संधियोमिं वरुण, श्रीणितर (कमर) में

१-क्षोतेदतोयसन्भूत कः

पुरामृतमन्धने । पद गाव शुभाः पार्थ पछलोकस्य मातरः ॥

नन्दा सुभद्रा सुरभिः मुरला बहुला इति । एता लोकोपकाराय देवाना तपनाय च ॥

जमदमप्रिधरद्ाजवसिश्ञासितशौतमाः । जगृहुः कामदाः पड़ गावो दत्ताः सुरतः ॥

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