उसी समयसे मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा
पूर्ण संयमशील रहना चाहिये। श्राद्धके दिन
अपराह्कालमें आये हुए ब्राह्मणोंका स्वागतपूर्वक
पूजन करे। स्वयं हाथमें कुशकी पवित्री धारण
किये रहे | जब ब्राह्मणलोग आचमन कर लें, तब
उन्हें आसनपर बिठाये। देवकार्यमें अपनी शक्तिके
अनुसार युग्म (दो, चार, छः आदि संख्यावाले )
ओर श्राद्धमे अयुग्म (एक, तीन, पाँच आदि
संख्यावाले) त्राद्यणोको निमन्त्रित करे। सब
ओरसे घिरे हुए गोबर आदिसे लिपे-पुते पवित्र
स्थाने, जहाँ दक्षिण दिशाकी ओर भूमि कुछ
नीची हो, श्राद्ध करना चाहिये। वैश्वदेव-श्राद्धमें
दो ब्राह्य्णोकिो पूर्वाभिमुख बिठाये और पितृकार्यमें
तीन ब्राह्मणोंको उत्तराभिमुख। अथवा दोनोंमें
एक-एक ब्राह्मणको ही सम्मिलित करे । मातामहोंके
श्राद्धमे भी एेसा हौ करना चाहिये। अर्थात् दो
वैश्वदेव -श्राद्ध्मे ओर तीन मातामहादि- श्राद्धमें
अथवा उभय पक्षे एक-हौ-एक ब्राह्मण रखे।
वैश्वदेव-श्राद्धके लिये ब्राह्मणका हाथ धुलानेके
निमित्त उसके हाथमे जल दे और आसनके लिये
कुश दे। फिर ब्राह्मणसे पूछे--मैं विश्वेदेवोंका
आवाहन करना चाहता हूँ।” तब ब्राह्मण आज्ञा
दें--' आवाहन करो।' इस प्रकार उनकी आज्ञा
पाकर “विश्वेदेवास आगत०' (यजु० ७। ३४)
इत्यादि ऋचा पढ़कर विश्वेदेबोंका आवाहन करे।
तब ब्राह्मणके समीपकी भूमिपर जौ बिखेंरे। फिर
पवित्रीयुक्त अर्ध्यपात्रमें 'शं नो देवी०' (यजु०
३६। १२)-इस मन्त्रसे जल छोड़े। 'बवो5सि० '--
इत्यादिसे जौ डाले। फिर चिना मन्त्रके ही गन्ध
और पुष्प भी छोड़ दे। तत्पश्चात् “या दिव्या
आप: ० '-- इस मन्त्रसे अर्व्यको अभिमन्त्रित करके
ब्राह्मणके हाथमें संकल्पपूर्वक अर्घ्य दे और
कहे-' अमुकश्राद्धे विश्वेदेवा: इदं वो हस्तार्ध्य
नपः।'-- यों कहकर वह अर्ध्यजल कुशयुक्त
ब्राह्मणके हाथमे या कुशापर गिरा दे। तत्पश्चात्
हाथ धोनेके लिये जल देकर क्रमशः गन्ध, पुष्प,
धूप, दीप तथा आच्छादन-वस्त्र अर्पण करे । पुनः
हस्त-शुद्धिके लिये जल दे। (विश्वेदेवोंको जो
कुछ भी देना हो, वह सव्यभावसे उत्तराभिमुख
होकर दे और पितरोंको प्रत्येक वस्तु अपसंव्यभावसे
दक्षिणाभिमुख होकर देनी चाहिये ।) ॥ १--५३॥
वैश्वदेव -काण्डके अनन्तर यज्ञोपवीत अपसव्य
करके पिता आदि तीनों पितरोंके लिये तीन
द्विगुणभुगन कुशोंको उनके आसनके लिये अप्रदक्षिण-
क्रमसे दे। फिर पूर्ववत् ब्राह्मर्णोकौ आज्ञा लेकर
"उशन्तस्त्वा०' (यजु १९।७०) इत्यादि मन््रसे
पितरोंका आवाहन कर्के, ' आयन्तु न:०' (यजु०
१९।५८) इत्यादिका जप करे। 'अपहता असुरा
रक्षाशसि वेदिषदः०'-- (यजु० २।२।८)'-
यह मन्त्र पढ़कर सब ओर तिल बिखेरे। वैश्वदेवश्राद्धमें
जो कार्य जौसे किया जाता है, वही पितृ- श्राद्धमें
तिलसे करना चाहिये। अर्ध्यं आदि पूर्ववत्
करे। संस्नरव (ब्राह्यणके हाथसे चूये हुए जल)
पितृपात्रमें ग्रहण करके, भूमिपर दक्षिणाग्र कुश
रखकर, उसके ऊपर उस पात्रको अधोमुख करके
दुलका दे और कहे "पितृभ्यः स्थानमसि।'
फिर उसके ऊपर अर्घ्यपात्र और पवित्र आदि
रखकर गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि पितरोंको
निवेदित करे। इसके बाद 'अग्नौकरण' कर्म
क्रे! घीसे तर किया हुआ अन्न लेकर ब्राह्मणोंसे
पूछे --' अग्नौ करिष्ये।' (मैं अग्निमें इसकी
आहुति दूँगा।) तब ब्राह्मण इसके लिये आज्ञा दें।
इस प्रकार आज्ञा लेकर पितृ-यज्ञकी भाँति उस
अन्नकी दो आहुति दे। [उस समय ये दो मन्त्र
क्रमशः पढ़े--' अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा नमः।
सोमाय पितृमते स्वाहा नमः।' (यजु ° २। २९) ]
फिर होमशेष अन्नको एकाग्रचित्त होकर यथाप्राप्त
पात्रे - विशेषतः चाँदीके पात्रोपे परोसे। इस