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केर # संक्षिप्त

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# भै

है । ब्रह्मन्‌ ! इस प्रकार मैंने तुमसे महेश्वरके

महाकाल आदि दस शुभ अवतारोका

झक्तिसह्नित वर्णन कर दियया। जो मनुष्य

समस्त झिवपवॉके अवसरपर इस परम

पावन कथाका भक्तिपूर्वकं पाठ करता है,

यह क्षिवजीका परम प्यारा हो जाता है।

(इस आख्यानका पाठ करनेसे) ब्राह्मणके

ऋषा्यतेजकी वृद्धि होती है, क्षत्रिय

लिजय-लाभ करता है, सैङ्य धनपति हो

जाता है और शुद्रकों सुखकी प्राप्ति होती है ।

स्वधर्मपरायण शिवभक्तोंको यह चरित

सुननेसे सुख श्राप्त होता है और उनकी

दिवभक्ति विशेषरूपसे यद्‌ जाती है।

मुने ! अब मैं दांकरजीके एकादश श्रेष्ठ

अकतारोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। उन्हें

श्रवण करनेसे असत्यादिजनित बाधा पीड़ा

नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालकी बात है

एक चार इन्र आदि समस्त देवता दैत्योंसे

पराजित हो गये । तब ये भयभीत हो अपनी

पुरी अपरायतीको छोड़कर भाग खड़े हुए ।

यों दैल्योद्वारा अत्यन्त पीडित हुए वे सभी

देवता कक््यपजीके पास गये। यहाँ उन्होने

परप व्याकुलतापूर्बक हाथ जोड़ एवं मस्तक

झुकाकर उनके चरणोंमें अभिवादन किया

और उनका भलीभाँति स्तवन करके आदर-

पूर्वक अपने आनेका कारण प्रकट किया

तथा दैल्योद्वारा पराजित होनेसे उत्पन्न हुए

अपने सारे दुःखोंकों कह सुनाया । तात !

तब उनके पिता कङ्यपजी देवताओंकी उस

काष्ट-कहानीको सुनकर अधिक दुःखी नहीं

हुए; क्योंकि उनकी बुद्धि दिवजीमे आसक्त

थी । पुने ! उन झान्तबुद्धि सुनिने धैर्य धारण

करके देखताओंको आश्रासन दिया और

स्यं परम हर्घपूर्वक विश्वनाथपुरी काझोको

अल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होनि गङ्गाजीके

जलूमें स्नान करके अपना नित्य-नियम पूरा

किया और फिर आदरपूर्वक उमासहित

सर्वेश्वर भगवान्‌ विश्वनाथकी भलीभाँति

अर्चना की । तदनन्तर झाम्भुदर्शनके उद्देश्यसे

शिवल्ड्की स्थापना करके वे

देवताओंके हितार्थं परम प्रसन्नतापूर्वक योर

तप करने लगे। पुने ! क्षिक्जीके चरण

कम्मे आसक्त मनवाले बैर्यशाली

मुनिवर कश्यपकों जब यों तप करते हुए

बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया, तब

सत्पुरुषोंके गतिस्वरूप भगवान्‌ शंकर अपने

चरणोमे तरललीन मनवा क्यप ऋषिको

यर देनेके सिये वहाँ प्रकट हुए । भक्तवत्सल

महेश्वर परम प्रसन्न तो थे ही, अतः ये अपने

भक्त मुनिवर कश्यपसे बोले-- घर माँगो ।'

उन महेश्वरको देखते ही प्रसन्न बुद्धिवाले

देवताओंके पिता कङ्यपजी हर्षमप्न हो गये

और हाथ जोड़कर उनके चरणोंमें नमस्कार

करके स्तुति करते हुए यों बोले-- "महेश्वर !

मैं सर्वधा आपका दारणागत हूँ। स्वामिन्‌ !

देवताओकि दुःखका विनाल करके मेरी

अभिलाषा पूर्ण कीजिये। देवेदा ! मैं पुत्रके

दुःखसे लिशेष दुःखी हूँ, अतः ईश ! मुझे

सुखी कीजिये; क्योंकि आप देवताओंके

सहायक हैं। नाथ! महावली दैत्योंने

देबताओं और यक्षोंक्रों पराजित कर दिया

है, इसलिये दाग्भो ! आप मेरे पुत्ररूपसे

प्रकट होकर देवताओंके लिये आनन्द्दाता

बनिये ।'

नन्दीधरजी कहते है--समुने !

कश्यपजीके ऐसा कहनेपर सर्वेश्वर भगवान्‌

ककर उनसे तथेति--ऐसा ही छोगा' यों

कहकर उनके सामने वहीं अन्तर्धान हो गये ।

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