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डेडड

वेदवादी महात्मा कहते हैं॥ २५॥ सर्वदेवस्वरूप अग्नि

आपका मुख है। तीनों लोकॉके अभ्युदय करनेवाले

शङ्कर ! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल

देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान

हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है॥ २६॥ आकाश नाभि है,

वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका

अहङ्कार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है । चन्द्रमा मन

है और प्रभो ! स्वर्ग आपका सिर है॥ २७ ॥ वेदस्वरूप

भगवन्‌ ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब

प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री

आदि छन्द आपकी सातों घातुएँ हैं और सभी प्रकारके

धर्म आपके हृदय हैं॥ २८ ॥ स्वामिन्‌ ! सद्योजातादि पाँच

उपनिषद्‌ हो आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव

और ईशान नामक पाँच मुख है । उन्हींके पदच्छेदसे

अडतीस कलात्मक मन्त्र निकले है । आप जब समस्त

प्रपञ्चसे उपरत होकर अपने खरूपे स्थित हो जते हैं,

त्वं उसी स्थितिका नाम होता है 'शिव' । वास्तवे कही

स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ॥ २९ ॥ अधर्मकी दम्भ-लोभ

आदि तरङ्ग आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी

सृष्टि होती है, वे सत्व, रज और तम-- आपके तीन नेत्र

हैं। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही

आपका विचार है। क्योकि आप ही सांख्य आदि समस्त

शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं ॥ ३० ॥

भगवन्‌ ! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है।

उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं और न

किसी प्रकारका भेदभाव ही । आपके उस स्वरूपको सारे

लोकपाल -वहांतक कि ब्रह्म, विष्णु और देवराज

इन्द्र भी नहीं जान सकते ॥ ३१ ॥ आपने कामदेव, दक्षके

यज्ञ, त्रिपुससुर और कालकूट विष (जिसको आप

अभी-अभी अवश्य पी जार्येगे) और अनेक जीवद्रोहो

असुरोंको नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहनेसे

आपको कोई स्तुति नहीं होती । क्योकि प्रलयक्े समय

आपका चनाया हुआ यह विश्व आपके हो नेत्रसे

निकली हुई आगकी चिनगारी एवं लपटसे जलकर भस्म

हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमान रहते हैं कि

आपको इसका पता ही नहीं चलता॥ ३२ ॥ जीवन्पुक्त

आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका

* ओमद्धागवत *

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ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और

तपस्यापें ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साध रहते

देखकर जो आपको आसक्तं एवं श्मशानवासी होनेके

कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं--बे मूर्ख आपकी

लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना

निर्लज्जतासे भरा है ॥ ३३॥ इस कार्य और कारणरूप

जगतसे परे माया है और मायासे भी अत्यन्त परे आप

हैं। इसलिये प्रभो ! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात्‌

ज्ञान प्राप्त करनेमें सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते,

फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामे

उनके पुत्रोंके पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर

भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान

किया है॥३४॥ हमलोग तो केबल आपके इसी

लीलाविहारी रूपके देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको

हम नहीं जानते। महेश्वर ! यद्यपि आपकी लीलाएँ

अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप

व्यक्तरूपसे भी रहते हैं ॥ ३५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! प्रजाका यह

सङ्कट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव

भगवान्‌ शड्भूरके हृदयमें कपावश बड़ी व्यथा हुई । उन्होंने

अपनी प्रिया सतीसे यह बात कटी ॥ ३६॥

शिवजीने कहा--देलि ! यह बड़े स्वेदकी बात है।

देखो तो सही, समुद्र-मन्थनसे निकले हुए कालकूट

विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पडा

है॥ ३७॥ ये ब्रेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंक्रो रक्षा

करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें

निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके

जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दुखियोंकी रक्षा

करें॥ ३८ ॥ सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्ग प्राणॉंकी बलि

देकर भी दूसरे प्राणियोकि प्राणकी रक्षा करते हैं।

कल्याणि ! अपने ही मोहकी मायामे फंसकर संसारके

प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरेसे यैरकी गाँठ बांधे

बैठे हैं ॥ ३९॥ उनके ऊपर जो कृपा करता है, डसपर

सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान्‌

प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न

हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण

करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ॥ ४५ ॥

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