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४५८ |] .[ -भत्स्य पुराण

करमेंच्रिशूल धारण करने और खज्भ एवं चक्र भी देवे । तीक्ष्ण बाण

तथा शक्ति को वाम कर में धारण कराना चाहिये । इनके अतिरिक्त

वाम भाग में ब्वेटक-पूर्णचाप-पाणु-अ कुश-घण्ट-परशु ये भी सब निवे-

शित करने चाहिए । इन देव के चरणों के तीचे के भाग में दो शिरों

बाले महिषासुर को भौ प्रदर्शित करे ।५६-६१। शिर के छेंदन होने से

समुत्पन्न रक्त से रक्तीकृत अज्ों बाला--रक्त से विस्फारित नेन्नों से

संयुत-खडग हाथ में धारण किये हुये उस दानव का स्वरूप दिखाना

चाहिये ।६२। नाग पाश से वेष्टित-भ्रकूटी से संयुत भीषण आनन

वाला--बहते हुये रुधिर से युक्त मुख वाला देवी का वाहन सिंह भी

देवी की प्रतिमा के साथ ही समीप में प्रदर्शित करना आवश्यक है।

दरें)

देव्यास्तु दक्षिणं पादं समं सिहोपरि स्थितम्‌ ।

किञ्चिद्‌ ध्वे तथा वाममंगुष्ठं महिषोपरि । ६४

स्तूयमानञ्च तद्र पममरे: सन्निवेशयेत्‌ ।

इदानीं सुरराजस्य रूपं वक्ष्ये विशेषतः ।६५

स्रहस्ननयनं देवं मत्तवारणसं स्थितम्‌ ।

पृथूरुवक्षोवदनं सिंहस्कन्धं महाभुजम्‌ ।६६

किरीटकुण्डलधरं पोवरोरुभुजेक्षणम्‌ ।

वज्रोत्पलधरं तद्वन्नानाभरणभूषितम्‌ ।६७

पूजितं देवगन्धर्वेरप्सरोगणसेवितम्‌ ।

छत्रचामरधारिण्य: स्त्रियः पाश्वे प्रदशंयेत्‌ ।६८

सिहासनगतञ्चापि गन्धववेगणसंयुतम्‌ ।

इन्द्राणीं वामतश्चास्य कुर्य्यादुत्पलधारिणी म्‌ ।६६

देवी का दक्षिण पाद सिंह के ऊपर स्थित होता है उससे कुछ

ऊपर वाम पादका अगुष्ठ महिषासुरके ऊपर समवस्थित होना चाहिए।

।६४। ऐसा देवी का स्वरूप अमर गणो के द्वारा संस्तूयमान होता हुआ

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