संधि' कहलाता है। युद्ध आदिके द्वारा उसे हानि | युद्धके लिये यात्रा न न करके बैठे रहनेपर भी
पहुँचाना “विग्रह'-है। विजयाभिलाषी राजा जो
शत्रुके ऊपर चढ़ाई करता है, उसीका नाम “यात्रा!
अथवा 'यान' है। विग्रह छेड़कर अपने ही देशमें
स्थित रहना * आसन' कहलाता है। (आधी सेनाको
किलेमें छिपाकर) आधी सेनाके साथ युद्धकी
यात्रा करना 'हैधीभाव' कहा गया है। उदासीन
अथवा मध्यम राजाकी शरण लेनेका नाम ^ संश्रय
है॥ १६--१९६ ॥
जो अपनेसे हीन न होकर बराबर या अधिक
प्रबल हो, उसीके साथ संधिका विचार करना
चाहिये। यदि राजा स्वयं बलवान् हो और शत्र
अपनेसे हीन--निर्बल जान पड़े, तो उसके साथ
विग्रह करना ही उचित है। हीनावस्थामें भी यदि
अपना पार्ष्णिग्राह विशुद्ध स्वभावका हो, तभी
बलिप्ठ राजाका आश्रय लेना चाहिये। यदि
राजा अपने शत्रुके कार्यका नाशं कर सके तो
पार््णिग्राहका स्वभाव शुद्ध न होनेपर भी वह
विग्रह ठानकर चुपचाप बैठा रहे । अथवा पार्णिग्राहका
स्वभाव शुद्ध न होनेपर राजा द्रैधीभाव-नीतिका
आश्रय ले। जो निस्संदेह बलवान् राजाके विग्रहका
शिकार हो जाय, उसीके लिये संश्रय-नीतिका
अवलम्बन उचित माना गया है। यह "संश्रय"
साम आदि सभी गुणोंमें अधम है । संश्रयके योग्य
अवस्थामें पड़े हुए राजा यदि युद्धकी यात्रा करें
तो वह उनके जन और धनका नाश करनेवाली
बतायी गयी है। यदि किसीकी शरण लेनेसे
पीछे अधिक लाभकी सम्भावना हो तो राजा
संश्रयका अवलम्बन करे। सब प्रकारकी
शक्तिका नाश हो जानेपर ही दूसरेकी शरण लेनी
चाहिये ॥ २०--२५॥
इस प्रकार आदि आरेय महापुराणमें ' बङ्गुण्यका वर्ण” नामक
दो सौ चौतीसवां अध्याय पूद्ध हुआ॥ २३४॥
नव्या
दो सौ पैतीसवां अध्याय
राजाकी नित्यचर्या
पुष्कर कहते है - परशुरामजी ! अब निरन्तर | भगवान् वासुदेवका पूजन करना उचित है । तदनन्तर
किये जाने योग्य कर्मका वर्णन करता हूँ, जिसका | गजा पवित्रतापूर्वक अग्निँ आहुति दे; फिर जल
प्रतिदिन आचरण करना उचित है। जब दो घड़ी | लेकर पितरोंका तर्पण करे । इसके बाद ब्राह्मणोंका
रात बाकी रहे तो राजा नाना प्रकारके वाद्यो, | आशीर्वाद सुनते हए उन्हें सुवर्णसहित दूध देनेवाली
बन्दीजनोंद्वारा की हुई स्तुतियो तथा मङ्गल-गीतोंकी | गौ दान दे ॥ १--५॥
ध्वनि सुनकर निद्राका परित्याग करे। तत्पश्चात्| इन सब कार्योंसे अवकाश पाकर चन्दन और
गृढ पुरुषों (गुप्तचर )-से मिले। वे गुप्तचर ऐसे | आभूषण धारण करे तथा दर्पणे अपना मुँह देखे ।
हों, जिन्हें कोई भी यह न जान सके कि ये| साथ ही सुवर्णयुक्त घृतमें भी मुँह देखे। फिर
राजाके ही कर्मचारी हैं। इसके बाद विधिपूर्वक | दैनिक-कथा आदिक श्रवण करे । तदनन्तर वैद्यकी
आय और व्ययका हिसाब सुने । फिर शौच आदिसे | बतायी हुई दवाका सेवन करके माड्नलिंक वस्तुओंका
निवृत्त होकर राजा स्नानगृहमें प्रवेश करे। वहाँ | स्पर्श करे । फिर गुरुके पास जाकर उनका दर्शन
नरेशकों पहले दन्तधावन (दाँतुन) करके फिर | करे ओर उनका आशीर्वाद लेकर राजसभामें प्रवेश
स्नान करना चाहिये तत्पश्चात् संध्योपासना करके | करे ॥ ६-७॥