डडर
* पुराणं परम पुण्यं भविष्यं सर्वसोख्यदम् +
{ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडू
भगवान् श्रीकृष्णने पुनः कहा--महाराज ! अब मैं
उस आपाक-दानकी विधि बता रहा हूँ, आप श्रद्धापूर्वक सुनें ।
बुद्धिमान् व्यक्तिको चाहिये कि ग्रह और ताराबलका विचारकर
शुभ मुहूर्तमें अगर, चन्दन, धूप, पुष्प, बस््र, आभूषण, नैवेद्य
आदिसे भार्गव (कुम्हार) का ऐसा सम्मान करे, जिससे वह
संतुष्ट हो और उससे निवेदन करे कि महाभाग ! आप
विश्वकर्मास्वरूप हैं। आप मेरे लिये सुन्दर छोटे-बड़े मिट्टीके
घड़े, स्थाली, कसोरे, कलश आदि पात्रोंका निर्माण करं ।
भार्गव भी उन पात्रोंकों बनाये। तदनन्तर विधिपूर्वक एक
आँवाँ-भट्टी लगाये। अनन्तर उन एक हजार मिट्टीके पात्रोंको
आँबैंमें स्थापित कर सायेकालके समय उसमें अग्नि प्रज्वलित
करे और रात्रिक्ो जागरणकर वाच्च, गीत, नृत्य आदिकी
व्यवस्थाकर उत्सव मनाये। सुप्रभात होते हौ यजमान आँवेंकी
अप्रिको शान्तकर पात्रॉंको बाहर निकाल ले । अनन्तर स्लानकर
श्वेत वख पहनकर उनमेंसे सोलह पात्रोंकों सामने स्थापित करे ।
गक्तवस्रसे उन्हे आच्छदितकर पृष्पमालाओंसे उसका अर्चन
करे और ब्राह्मणोंद्रारा स्वस्तिवाचन आदि कराकर भार्गवका भी
पूजन करे। ये पात्र माणिक्य, सोने, चाँदी अथवा मिट्टीतकके
हो सकते हैं। सौभाग्यवती स्त्रियोंकी पूजाकर भाण्डोंकी
प्रदक्षिणा करनी चाहिये और इन मनक पढ़ते हुएं उन
पात्रॉका दान करना चाहिये--
आपाक ब्रह्मरूपोऽसि भाण्डानीमानि जन्तवः ।
श्रदानात् ते अजापुष्टिः स्वर्गश्चास्तु ममाश्चयः ॥
भाष्डरूपाणि यान्यत्र कल्थितानि मया किल ।
भूत्वा सत्पात्ररूपाणि उपतिष्ठन्तु तानि से ॥
(उत्तरपर्व १६७। ३२-३३)
'आपाक (अवि) ! आप ब्रह्मरूप हैं और ये सभी
भाष्ड प्राणीरूप हैं। आपके दान करनेसे मुझे प्रजाओंसे पुष्टि
आप्त हो, अक्षय स्वर्ग प्राप्त हो। मैंने जितने पात्र निर्माण कराये
हैं, ये सभी सत्पात्रके रूपमें मेरे समश्च प्रस्तुत रहें।'
जिसकी इच्छा जिस पात्रको लेनेकी हो उसे वह स्वयं ही
ले ले, रोके नहीं। इस विधिसे जो पुरुष अथवा स्त्री इस
आपाक-दानको करते हैं, उससे तीन जन्मतक विश्वकर्मा संतुष्ट
रहते हैं और पुत्र, मित्र, भृत्य, घर आदि सभी पदार्थ मिल जाते
हैं। जो स्त्री इस दानको भक्तिपूर्वकं करती है,वह सौभाग्यशाली
पतिके साथ पुत्र-पौत्रादि सभी पदार्थो प्राप्त कर लेती है
और अन्ते अपने पतिसहित स्वर्गको जाती है। नश्वर ! यह
आपाक-दान भूमिदानके समान ही है। (अध्याय १६७)
~अ *-
गृहदान-विधि
महाराज युधिष्ठिरने कडा-- भगवन् ! आप सभी
शास्त्रेकि मर्मज्ञ है, अतः आप गृहदानकी विधि और महिमा
बतलानेकी कृपा करे ।
भगवान् श्रीकृष्ण योले-- महाराज ! गार्हस्थ्यधर्मसे
बढ़कर कोई धर्म नही ओर असत्यसे बढ़कर कोई पाप नहीं
है। ब्राह्मणसे बढ़कर कोई पूज्य नहीं और गृहदानसे बढ़कर
कोई दान नहीं है। घन, धान्य, स्त्री, पुत्र, हाथी, घोड़ा, गौ,
भृत्य आदिसे परिपूर्ण घर सवर्गसे भी अधिक सुख देनेवाला है।
जिस प्रकार सभी प्राणी माताके आश्रयसे जीवित रहते हैं, उसी
प्रकार सभी आश्रम भी गृहस्थ-आश्रमपर ही आधृत हैं ।अपने
भर रात्रिको पैर फैलाकर सोनेमें जो सुख है, वह सुख स्वर्गमें
भी नहीं। अपने घरमें शाकका भोजन करना भी उत्तम सुख
है, इसलिये महाराज ! सुन्दर घर बनवाकर ब्राह्मणको देना
चाहिये। जो व्यक्ति शौव, यैच्णव, योगी, दीन, अनाथ,
अध्यागत आदिके लिये गृह, धर्मशाला बनाता है, उस
व्यक्तिकये सभी व्रत ओर सभी प्रकारके दान करनेका फल
पराप्त हो जाता है । पके ईंटसे सुदृढ़, ऊँचा, शुभवर्ण, जाली,
ज्ञरोखा, स्तम्भ, कपाट आदिसे युक्त, जलाशय और
पुष्प-याटिकासे भूषित, उत्तम आँगनसे सुशोभित सुन्दर घर
बनाना चाहिये । गृह कछुएकी पीठके समान ऊँचा एवं
बरामदोंसे सुसज्जित होना चाहिये। उसे कई मंजिलों तथा
गलियों आदिसे समन्वित होना चाहिये। लोहा, सोना, चाँदी,
ताँबा, लकड़ी, मृत्तिका आदिके पात्र, वख, चर्म, वत्कल,
तृण, पाषाण, पात्र, रल, आभूषण, गाय, भैंस, घोड़ा, बैल,
सभी प्रकारके धान्य, घी, तेल, गुड़, तिल, चावल, ईख, मुँग,
गेहूँ, सरसों, मटर, अरहर, चना, उड़द, नपक, खजूर, द्राक्षा,
खडी, मधानी, झाड़ तथा जलकुम्भ आदि ये सब गृहस्थके