३०२ + संक्षि क्लिवपुराण *
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भर गयीं ओर हवाके झोंके रवाकर गिरी हुईं मूर्छित हो गयी । तदनन्तर सखि्योनि जब
लताके समान तुरंत भूमिपर गिर पड़ीं । “यह नाना प्रकारके उपाय करके उनकी समुचित
कैसा चिकृत दृश्य है ? यै दुराग्रहमें पड़कर सेवा की, तव गिरिराजप्रिया पेना धीरे-धीरे
ठगी गयी ।' यो कहकर गेना उसी क्षण होमे आयीं । (अध्याय ४१--४३)
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मेनाका बिलाप, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, देवताओं
तथा श्रीविष्णुका उन्हें समझाना तथा उनका सुन्दर रूप धारण
करनेपर ही शिवको कन्या देनेका विचार प्रकट करना
जह्माजो कहते हैं--नारद ! जब
हिमाचलप्रिया सती येनाको चेत हुआ, तव
ये अत्यन्त क्षुत्ध होकर विलाप एवं तिरस्कार
करने लगीं। पहले तो उन्होंने अपने पुत्रौकी
निन्दा की, इसके बाद ले तुम्हें ओर अपनी
पुत्रीको दुर्वचन सुनाने लगीं ।
येना चो मुने ! ! पहले तो तुमने यह
कहा कि "दिया शिवका वरण करेगी,
पीछे मेरे पति हिमवानका कर्तव्य बताकर
उन्हें आराधना-पूजामें छगाया। परंतु इसका
यथार्थ फल क्या देखा गया ? विपरीत एवं
अनर्थकारी ! दुर्घुद्धि देवर्षे ! तुमने मुहा
अधम नारीको सब तरहसे ठग लिया । फिर
मेरी बेटीने ऐसा तप किया, जो मुनियोके
लिये भी दुष्कर है; उसकी उस तपस्याका यह
फल पिता, जो देखनेवात्तोंको भी दुःखमें
इात्छ्ता है। हाय ! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ,
कौन पेरे दुःखको दूर करेगा ? मेरा कुल
आदि नष्ट हो गया, मेरे जीवनका भी नादा हो
गया। कहाँ गये वे दिव्य ऋषि ? पाऊँ तो मैं
ऐसा कहकर मेना अपनी पुत्री ज्िवाकी
ओर देखकर उन्हें कडुबलन सुनाने लगी--
“अरी दुष्ट लड़की ! तूने यह कौन-सा कमं
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छोड़कर सियारका सेवन क्रिया ।
छोड़कर कुत्सित गाथाका श्रवण
। बेटी ! तूने घर्मे रखी हुई यशकी
विभूतिको दूर हटाकर चिताकी
राख अपने पल्क्ते बाँध ली;
समस्त श्रेष्ठ देवताओं और चिच्णु
परमेश्वरोंको छोड़कर अपनी कुबुद्धिके
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प
उनकी वाढ़ी-मुँछ नोच दँ । चतिष्ठकी वह कारण रिवको पानके लिये ऐसा तप
तपस्विनी पत्नी भी बड़ी धूर्ता है, वह स्वयं इस किया ? तुझको, तेरी बुद्धिको, तेरे रूपको
विवाहके लिये अगुआ बनकर आयी शी । और तेरे चरित्रको भी बारंबार धिक्कार चै ।
न जाने किन-किनके अपराधसे इस समय तुझे तपस्याका उपदेदा देनेवाले नास्दकों तवा
मेरा सब कुछ लुट गया । तेरी सहायता करनेवाललो दोनों सखियोको