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काण्ड २० सक्त ३४ २७

[ सूक्त- ३२ ]

[ ऋषि- अष्टक । देवता- हरि । छम्द्‌- बरिष्टप्‌ ॥]

५२१४. अप्सु धूतस्य हरिवः पिबेह नृभिः सुतस्य जठरं पृणस्व ।

मिमिक्षुर्यमद्रय इन्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥१ ॥

अश्च के अधिपति हे इन्द्रदेव जल में शोधित, इस यज्ञ में लाये गये सोमरस का पान करें । इससे अपनी

उदरपूर्ति करें । हे प्रशंसनीय इन्द्रदेव ! पाषाणों द्वारा जिसका अभिषवण किया गया है, आप उसे पीकर उत्साहित

होकर हमारी स्तुतियों को ग्रहण करें ॥१ ॥

५२१५. प्रोग्रां पीतिं वृष्ण इयर्मि सत्यां प्रयै सुतस्य हर्यश्च तुभ्यम्‌।

इन्द्र धेनाभिरिह मादयस्व धीभिर्विश्वाभिः शच्या गृणानः ॥२ ॥

हरिताश्रपति हे इन्द्र आपके लिए सोम अभिषवित किया गया है । सुख-ऐश्वर्यों के वर्षक आप यज्ञ की

ओर सुनिश्चित रूप से आयेंगे, ऐसा जानते हुए आपके पानार्थं सोम प्रस्तुत करते हैं । हे देव ! आप स्तोत्रों को ग्रहण

करके आनन्दित हों । आप समस्त बुद्धियों और शक्तियों के सहित स्तुत्य हैं ॥२ ॥

५२१६, ऊती शचीवस्तव वीर्येण वयो दधाना उशिज ऋतज्ञाः ।

प्रजावदिन्द्र मनुषो दुरोणे तस्थुर्गृणन्तः सधमाद्यासः ॥३ ॥

हे इन्द्रदेव ! उशिज्‌ वंशज यज्ञ कर्म के विशेषज्ञ र । वे आपके आश्रित होकर आपके प्रभाव से अन्न और

सन्तान प्राप्त करके यजमान के यज्ञगृह पे रहने लगे । वे सभी आनन्द विभोर होकर आपकी प्रार्थना करने लगे ॥३ ॥

[ सूक्त- ३४]

[ ऋषि- गृत्समद । देवता- इन्द्र । छन्द- वरिष्टुष्‌ ।]

५२१७. यो जात एव प्रथमो मनस्वान्‌ देवो देवान्‌ क्रतुना पर्यभूषत्‌ ।

यस्य शुष्माद्‌ रोदसी अभ्यसेतां नृम्णस्य महवा स जनास इन्द्र: ॥१॥

हे मनुष्यो ! अपने पराक्रम के प्रभाव से ख्याति प्राप्त उन मनस्वी इन्द्रदेव ने उत्पन्न होते ही अपने श्रेष्ठ कमो

से देवताओं को अलंकृत कर दिया था, जिनकी शक्ति से आकाश और पृथिवी दोनों लोक भयभीत हो गये ॥१ ॥

५२१८. यः पृथिवीं व्यथमानामदूंहद्‌ यः पर्वतान्‌ प्रकुपितां अरम्णात्‌ ।

यो अन्तरिक्षं विममे वरीयो यो द्यामस्तभ्नात्‌ स जनास इन्द्र: ॥२ ॥

हे पनुष्यो ! उन इन्धदेब ने विशाल आकाश को मापा, द्युलोक को धारण किया तथा काँपती हुई पृथिवी को

मजबूत आधार प्रदान करके क्रुद्ध पर्वतों को स्थिर किया ॥२ ॥

५२१९. यो हत्वाहिमरिणात्‌ सप्त सिन्धून्‌ यो गा उदाजदपधा बलस्य ।

यो अश्मनोरन्तरग्नि जजान संवृक्‌ समत्सु स जनास इनदरः ॥३ ॥

है मनुष्यो ! जिन्होंने वृत्र राक्षस को मारकर (जल वृष्टि द्वारा) सात नदियों को प्रवाहित किया, जिन्होंने बल

(राक्षस) दवारा अपहत की गयी गौ ओं को मुक्त कराया, जिन्होंने पाषाणो के बीच अग्निदेव को उत्पन्न किया, जिन्हेनि

शत्रुओं का संहार किया, वे ही इन्द्रदेव हैं ॥३ ॥

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