३१८ |] [ मत्स्यपुराण
वाधिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोष्यधवषंति ।६
तथाभिवर्षत्स्वंराज्यकाममिन्द्रव्रतस्मृतम् ।
अष्टौमासान्यथा दित्यस्तोयंह रति रश्मिशि: ;
तथा हरेत्करं राष्ट्रान्नित्यकमेंत्रतं हितत् ।१०
प्रविश्य सवैभ्रूतानि यथा चरति मारुतः ।
तथा चार: प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ।११
जिस तरह से सब शृतो का विशेष मरण करने वाले का पार्थिव
ब्रत होता है । इन्द्र, सूयं, वायु यम, वरुण, चन्द्र अग्नि और पृथिवी का
तेजोव्रतत नप को चरण करना चाहिए । वर्षा के चार मासो में जिस तरह
से इन्द्र देव वर्षा किया करते हैं उसी भाँति से राजा को अपने राज्य में
प्रजा की कामनाओं की पति वर्षा भली भाँति करनी चाहिए---इसी को
इन्द्रव्रत कहा जाता है । जिस तरह से आठ मास तक सुभ्यं अपनी
किरणों के द्वारा जल का हरण किया करता है उसी तरह से राजा राष्ट्र
से कर का आहरण करे--यही नित्य कमंत्रत कहा गया है ।<-१०।
मारुत समस्त भूतो में प्रवेश करके जिस तरह से सचरण किया करता है
वैसे ही चारों के द्वारा राजा को प्रवेश करना चाहिए यही मास्त ब्रत
कहा जाता है ।१९।
१०५- ग्रह यज्ञादि का विधान वर्णन
ग्रहयज्ञः कथ कार्यो लक्षहोम: कथं नृपै: ।
कोरिहोमोऽपिवा देव ! सर्वेपामप्रणाशन:ः । १
क्रियते विधिना येम यद्दृष्टं शान्तिचिन्तकैः ।
तत्सवं विस्तारदृदेव । कथायत्र जनादन ।२
इदानीं कथयिष्यामि प्रसङ्भदेवते नृप ।