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* पुराणं परमं पुण्य भविष्यं सर्वसोख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

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पूजाकर ब्राह्मणको दे ।

इस ब्रतके करनेसे सभी कामनाएँ सिद्ध होती हैं और

निष्कामभावसे करनेपर नित्यपद प्राप्त होता है। खी, पुरुष

अथवा कुमारी जो कोई भी इस सौभाग्यशयन नामक व्रतको

भक्तिपूर्वक करते हैं वे देवीके अनुप्रहसे अपनी कामनाओंको

प्राप्त कर लेते हैं। जो इस व्रत्का माहात्म्य श्रवण करते हैं, वे

दिव्य ऋरीर प्राप्त कर स्वर्गमें जाते हैं। इस वतको कामदेव,

चन्द्रमा, कुबेर तथा और भी अन्य देवताओनि किया है। अतः

सबको यह त्रत करना चहिये ।

(अध्याय २५)

अनन्त-तृतीया तथा रसकल्याणिनी तृतीया-त्रत

राजा युधिष्ठिरे कहा-- भगवन्‌ ! अब आप सौभाग्य

एवं आयेम्य-प्रदायक, शत्रुविनादाक तथा भुक्ति -मुक्ति-

प्रदायक कोई वरते बतत्मइये ।

भगवान्‌ श्रीकृष्ण योले-- महाराज ! बहुत पहलेकी

यात है, असुर-संहारक भगवान्‌ शैकरने अनेक कथाओकि

प्रसंगमे पार्वतीजीसे भगवती ललिताकी आराधनाकी जो विधि

बतलायी धी, उसी ब्रतका मैं वर्णन कर रहा हूँ, यह व्रते सम्पूर्ण

पाषोंका नाश करनेवाततर तथा नारियोंके लिये अत्यन्त उत्तम है,

तृतीयाको श्वेत सरसॉका उबटन लगाकर सान करे । गोरोचन,

मोथा, गोमूत्र, दही, गोमय और चन्दन--इन सबको मिल्प्रकर

मस्तकमें तिलक करे, क्योंकि यह तिलक सौभाग्य तथा

आरोग्यको देनेवास्त्र है तथा भगवती लल्तताकों बहुत प्रिय

है। प्रत्येक मासके शुक्ल पक्षकी तृतीयाकों सौभाग्यवती खी

रक्तवसख, विधवा गेरु आदिसे रगा वस्र और कुमारी शुक वस्त्र

धारणकर पूजा करे। भगवती लल्िताको पञ्चगव्य अधवा

केवल दुग्धे खान कराकर मधु और चन्द्न-पुष्पमिश्रित

जलसे स्वान कराना चाहिये । खनके अनन्तर श्वेत पुष्प, अनेक

प्रकारके फल, धनिया, धेत जीरा, नमक, गुड़, दूध तथा घीका

मैवेद' अर्पणकर श्वेत अक्षत तथा तिलसे ललितादेवीकी

अर्चना करे । प्रत्येक शठ पक्षम तृतीया तिथिको देवीकी

अर्चना करे ।

प्रत्येक शुत पक्षम तृतीया तिधिको देवीकौ मूर्तिके

चरणसे लेकर मस्तकपर्यन्त पूजन करनेका विधान इस प्रकार

है-- "वरदायै नमः' कहकर दोनों चरणौकी, *श्रियै नषः'

कहकर दोनों टखनौकी, 'अक्षोकायै नमः" कहकर दोनों

कहकर कटिकी, 'फ्योद्धवायै नमः' कहकर पेटकी,

"कामन्नियै नमः' कहकर वक्षःस्थलकी, 'सौभाग्यवासिन्यै

नमः' कहकर हाथोंकी, 'शशिमुखञ्रिये नमः' कहकर

बाहुओंकी, "कन्दर्पवासिन्यै नणः' कहकर मुखकी, 'पार्वत्यै

नमः' कहकर मुसकानकी, "गौर्यै नपः' कहकर नासिकाकी,

“सुनेत्राये नमः” कहकर नेज्नोंकी, तुष्टयै नमः” कहकर

ललाटकी, "कात्यायन्यै नप:' कहकर उनके मस्तककी पूजा

करे । तदनन्तर "गौर्यै नमः”, 'सृष्टवै नमः”, "कान्त्यै नमः',

“न्वै नमः", 'रम्थायै नमः', "ललितायै नमः' तथा

"वासुदेव्यै नमः" कहकर देवीके चरणोमिं बार-बार नमस्कार

करे । इसी प्रकार विधिपूर्वक पूजाकर मूर्तिक आगे कुकुमसे

कर्णिकासहिते द्राददा-दलयुक्त कमल बनाये।

पूर्वभागमें गौरी, अप्रिकोणमें अपर्णा, दक्षिणमें भवानी,

उत्तरमें पाटला तथा ईदानकोणमे उमाकी स्थापना करे। मध्यमें

रुद्राणीकी स्थापना कर कर्णिकस्के ऊपर भगवती ललिताकी

स्थापना करे । तत्पश्चात्‌ गीत और माङ्गलिक वाद्योका आयोजन

कर धेत पुष्प एवं अक्षतसे अर्चना कर उन्हें नमस्कार करे ।

फिर स्र वख, रक्त पुष्पॉकी मात्र और लाल अङ्गणगसे

सुवासिनी शिका पूजन करे तथा उनके सिर (माँग) में

सिंदूर और केसर लगाये, क्योंकि सिंदूर और केसर सतीदेवीको

सदा अभीष्ट हैं।

भाद्रपद मासमे उत्पल (नीलकमल) से, आध्चिनमें

बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) से, कार्तिके कमलसे, मार्गशीर्षमें

कुन्द-पुष्यसे, पौषमे कुकुमसे, माघमें सिंदुबार (निगुंडी) से,

फाल्गुन मालतीसे, चैत्रमें मल्लिका तथा अदोकसे,

, वैशाखमें गन्पारल (गुलाय)से, ग्येष्ठमे कमल और

* मन्दारसे, आषाठमें चम्पक और कमलसे तथा श्रावणमे कदम्ब

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