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पर्दे ओषध हैं॥ २--५॥

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तीस चौथे, पांचवें और छठें षट्के, सेवनमात्से

क्रमशः एक-दो आदि संख्यावाले ये महान्‌ | भी मनुष्य नीरोग हो जाता है। उक्त छत्तीस

ओषध समस्त रोगोंको दूर करनेवाले तथा अमर

बनानेवाले हैं; इतना ही नहीं, पूर्वोक्त सभी

कोष्ठके ओषध शरीरमें झुर्रियाँ नहीं पड़ने देते

और बालोंका पकना रोक देते हैं। इनका चूर्ण या

इनके रससे भावित बटी, अवलेह, कषाय (काढ़ा),

लड्डू या गुडखण्ड यदि घी या मधुके साथ खाया

जाय, अथबा इनके रससे भावित घी या तेलका

जिस किसी तरहसे भी उपयोग किया जाय, वह

सर्वथा मृतसंजीवन (मुर्देको भी जिलानेबाला)

होता है। आधे कर्ष या एक कर्षभर अथवा आधे

पल या एक पलके तोलमें इसका उपयोग

करनेवाला पुरुष यथेष्ट आहार-विहारमें तत्पर

होकर तीन सौ वर्षोतक जीवित रहता है।

मृतसंजीवनी-कल्पमें इससे बढ़कर दूसरा योग

नहीं है ॥ ६--१०॥

(नौ-नौ औषधोंके समुदायको एक “नवक'

कहते हैं। इस तरह उक्त छत्तीस औषधोंमें चार

नवक होते हैं।) प्रथम नवकके योगसे बनी हुई

ओषधिका सेवन करनेसे मनुष्य सब रोगोंसे

छुटकारा पा जाता है, इसी तरह दूसरे, तीसरे और

चौथे नवकके योगका सेवन करनेसे भी मनुष्य

रोगमुक्त होता है। इसी प्रकार पहले, दूसरे,

ओषधियोंमें नौ चतुष्क होते हैं। उनमेंसे किसी

एक चतुष्ककेः सेवनसे भी मनुष्यके सारे रोग दूर

हो जाते हैं। प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम,

षष्ट. सप्तम और अष्टम कोष्ठकी ओषधियोंके

सेवनसे वात-दोषसे छुटकारा मिलता है। तीसरी,

बारहवीं, छब्बीसवीं और सत्ताईसवीं ओषधियोकि

सेवनसे पित्त-दोष दूर होता है तथा पाँचवीं,

छठी, सातवीं, आठवीं और पंद्रहवीं ओषधियोंके

सेवनसे कफ-दोषकी निवृत्ति होती है। चौंतीसवें,

पैंतीसवें और छत्तीसवें कोष्ठकी औषधोंको धारण

करनेसे वशीकरणकी सिद्धि होती है तथा ग्रहबाधा,

भूतबाधा आदिसे लेकर निग्रहपर्यन्त सारे संकटोंसे

छुटकारा मिल जाता है॥ ११--१४ ३ ॥

प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम,

नवम, एकादश संख्यावाली ओषधियों तथा बत्तीसवीं,

पंद्रहवीं एवं बारहवीं संख्यावाली ओषधियोंको

धारण करनेसे भी उक्त फलकी प्राप्ति (वशीकरणकी

सिद्धि एवं भूतादि बाधाकी निवृत्ति) होती

है। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना

चाहिये। छत्तीस कोष्टोंमें निर्दिष्ट की गयी इन

ओषधियोंका ज्ञान जैसे-तैसे हर व्यक्तिको नहीं

देना चाहिये॥ १५-१६॥

इस प्रकार आदि आण्तेव महापुराणमें 'छत्तीस कोके भीतर स्थाप्रित ओषशियोंके विज्ञानका वर्णन

नामक एक सौ इकतालीसकाँ अध्याय पूथ हुआ॥ १४१ #

एक सौ बयालीसवाँ अध्याय

चोर ओर जातकका निर्णय, शनि-दृष्टि, दिन-राहु, फणि-राहु, तिथि-राहु

तथा विष्टि-राहुके फल और अपराजिता-मन्त्र एवं ओषधिका वर्णन

भगवान्‌ महेश्वर कहते हैं--स्कन्द! अब मैं | लिये किसी वस्तु (वृक्ष, फूल या देवता आदि)-

मन्त्र-चक्र तथा औषध-चक्रोंका वर्णन करूँगा, | का नाम बोले। उस वस्तुके नामके अक्षरोंकी

जो सम्पूर्ण मनोरथोंकों देनेवाले हैं। जिन-जिन | संख्याको दुगुनी करके एक स्थानपर रखे तथा

व्यक्तियोंके ऊपर चोरी करनेका संदेह हो, उनके | उस नामकी मात्राओंकी संख्यामें चारसे गुणा

१-२. छ: ओषधियोंके समुदायको ' ' पट्क' और चार ओषधियोंके समुदायको 'चतुष्क' कहते हैं।

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