* ऊद्धसैहिता *
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हुआ देख भयभीत और व्याकुरू दुं यान्ते
दोनो सखियोंके साथ अपने घर चलौ गयीं ।
उस अब्दे परिवारसहिते हिमवान् भी बड़े
चिस्पयमे पड़ गये और यहाँ गयी हुई अपनी
पुत्रीका स्परण करके उन्हें बड़ा ङे हज ।
इतनेमें ही पार्वतो दूरसे आती हुई दिखायी
दीं। ये दाम्भुके खिरहसे गे रही सी । अपनी
पुत्रीकों अत्यन्त बिद्धल हुई देख शौलराज
हिमलानको बड़ा शोक हुआ और ये शीघ्र ही
उसके पास जा पहुँले ये फिर हाथसे उसकी
दोनों आँखें पोंछकतर बोले--“शिवे ! करो
देते हुए वे अपने घर ले आये /
कामदैवका दाह करके महादेवजी
अदृश्य हो गये थे। अतः: उनके विरहसे
पार्वती अत्यन्त व्याकुलः हो वटी थीं। उन्हें
कहीं भरो सुख गा श्नान्ति नहीं पिलती थी।
पिताके घर जाकर जब ये अपनी मातासे
मिली, उस सरमय पार्वती शिवाने अधना
नया जन्य हुआ माना † ये अयने रूयक्की
निन्दा करने रूगीं और बोलीं--'हाय । मैं
मारी गयी ।' सख्वियोंक्रे समझानेपर भी चे
गिरिराजकुमारी कुछ सभझ ही पाती थीं।
खे सोके-नागते, खाते-पीते, नहाते-धोते,
चलतते-फिरते और सखियोके बीखमें खड़े
होते समय भी कभी किंचिन्माज भी सुखका
अनुभव नहीं कर्ती थीं। 'मेरे स्वरूएकों
तथा जन््म-कर्मको भी घिक्कार है' ऐसा
कहती हुई वे सदा महादेवजीको प्रत्येक
चेष्टाका चिन्तन करती थीं। इस्र प्रकार
पार्वती भगरकाच् ज्िक्तके विर्ह॒ले सन-हीं-मन
अत्यन्त दाका अनुभव करती और
किल्तिनरात्र भी सुस्त नहीं पाती थीं। वे सदा
"हिय, शिव' का जप क्रिया करती धी)
शरीरम पिक्नाके घरमें रहककर भी चै चित्तसे
पिनाकपाणि भगवान् झंकरके यास तवी
रहती ीं। तात ! दिवा शोक्रमप्र हो
श्रारंवार मूर्च्छित हो जाती थीं। दीत्यराजे
हिमवान् उनकी पत्नी मेनका तथा उनके
यैनप्क अदि सभी पर, जो बड़े उदारचेता
थे, उन्हें सदा सान्त्वना देते रहते थे । नथापि
ये भगवान् चौकरको भूल न सकतीं ।
चुद्धिमान् देवपें ¦ तदनन्तरे एक विम
इन्द्रकी प्रेरणासे हच्छानुसार घूपते हुए तुम
हिमालय पर्व्तपर आये । उस समय भहात्मा
हिमवानने तुम्हारा स्वागने-सत्कार किया
और कुझाक्त-मुछ पूछा । फिर तुप उनके
दिये हुए उत्तम आसनपर यैदे । तदनन्तर
ङौलराजने अपनी क्व्याके चरित्रका
आरण्मसे ही वर्णन किया / किस्म तरह उसने
महादेवजीकी सेवा आरम्भ कौ और किस
तरह उनके द्वारा कामदेश्वका दहन
हुआ--थह सब्र कुछ बताया। पुने ! यह
सब सुनकर तुमने गिरिसजसे कहा--
“बैलेश्वर । भगवान् झिवका भजन करो ।'
फिर उनसे विदा लेकर तुम उठे और भन-हीं-
पन दिचका स्मर्य करके शैलराजको छोड़
जीघ्र ही एकान्तमें कालीके पास आ गये।
सुने ! तुम ल्लेकोपकारी, ज्ञानी तधा शिवकरे
प्रिय भक्त हो; समस्त ज्ञानवानोंके सिरोसकि
हो, अत्तः काहीके पास आ देसे सम्बोधित
करके उम्रीके छित्तमें स्थित हो उससे सादर
चदे सत्य बबन बोले ।
नारदजीने (तमने) कदा--कार्ख्किः !
तुम मेरी खात सुनो ! मैं दयालद्ा सधी खात
कह रहा हूँ। मेरा वचन तुम्हारे लिये सर्वथा