म भूर्या तत्त्व, बेदोंका प्रा, ज़ह्माजीए्वारा सूर्यदैवकी स्तुति और सृष्टि-रचना*
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द° १४४५६३५५. ४५ ६0.4५. क2:20००५७ ७४३ ६५429 २2५५१5५ 8.४ 2300० ५५८४५२९५
सृष्टिका आदि- अन्त्, अत्यन्त सूक्ष्म एवं निराकार
है; वहीं परब्रह्म तथा वहो द्रह्मका स्वरूप है।
उक्त आण्डका भेदने होनेपर अध्यक्तजन्मा
ब्रह्मानोके प्रथम मुखसे ऋचाएँ प्रकट हुईं। उनका
जणं जपाकुसुमके समान धा) वे सब्र तेजोमयी,
एक-दूसरीस पृथक् तथा रजोमय रूप धारण
करनेवाली थीं। तत्पश्चात् ब्रह्माजीके दक्षिण मुखसे
बज़ुर्वेदके मन्त्र अब्राधरूपसे प्रकर छु०। जैसा
सुबर्णका रंग होता है, नैसा ही उनका भी धा।वे
भी एक-दूसरेसे पृथक् पृथक् थे। फिर परमेष्टी
ब्रह्मके पश्चिप पुखसे सामवेदके छन्द प्रकट हुए।
सम्पूर्ण अथर्ववेद, जिसका रंग भ्रमर और
कुजलराशिके समाने काला हैं तथा जिसमें
अभिनार एवं शान्तिकर्मके ग्रयोग हैँ, ब्रह्याजीके
उत्तरमुखसे प्रकर हुआ। उसमें सुखमय सत्तगुण
तथा तमोधुणकी प्रधानता रै) बह घोर और
सौम्परूप हैं। ऋण्लेदमें रजोगुणकौ, यजुतरदमे
सत्त्वगुणक्री, सामवेदमें तपोगुणकी तथा अधर्ववेदर्मे
हमोगुण रवं सत्त्गगुणकौ प्रधानत है। ये चारों तेद
अनुपम तेजशे देदीप्यमान होकर पहलेकी हो
भाँति पृथंक-पृथक् स्थित हुए। तत्पश्चात् वह
प्रथम तेज, जो ' ॐ ' कै नामसे पुकारा जाता है,
अपने स्वभावे प्रकट दए ऋग्वेदमय तेजकों
व्याप्त करके स्थित हुआ। महापुने! इसी प्रकार
उस प्रणवरूप तेजने यजुतरैद पयं सामलेदपय
तेजकौ भी आवृत्तं किया। इस प्र्रार उस
अधिष्रानस्वखूगप परम तेज कारय चारों वेदमय
तेज एकत्वको प्राप्त हुए। ब्रह्मन्! तदनन्तर वह
पु्ञोंभूत उत्तम वैदिक तेज परम तेज प्रणवर्के
साथ मिलकर जब एकत्लको प्राप्त होता है, तन
सबके आदियें प्रकट होनेके कारण उसका नम
आदित्य होता दै । महाभाग ! चह आदित्य हो इस
बिश्रक्ा अबिनाज्ञों कारण है। प्रात:काल, मध्याह्न
तथा अपराज्ञकालमें आदित्यकी अर्गभूत वेदत्रयी
ही, जिसे क्रमशः क्क्, चज. और साम कहते हैं,
तपती है। पूर्ाह्में ऋ्वेव, मध्याहमें तनुर्चेद तथा
अपराहे सामवेद तपता है । इसीलिये ऋवेदोक्त
शान्तिकर्म पूर्व्म, यजुर्वेदोक्त पौरिककर्प मध्याहमें
तथा रानयेदोक्त आधिचारिक कर्म अपराहकालमें
निश्चित किया गवा है। आभिचारिक कर्म मध्याह
और अपराह्न दोनों कालोंमें किया जा सकता है,
किन्तु पितरौंके श्राद्ध आदि कार्य अपराह्मकालमें
हो साम्रवेदके मन्त्रोंसे करने चहिवे । सृ्टिकालमें
बच्या ऋषेदमय, पालनक्रालमें विष्णु यजुर्वेदमय
तथा संहारकाले रुद्र सामवेदमय कहे गये हैं।
जतएब लामवेदकी ध्वनि अपवित्र मानी गौ है ।
इम प्रकार भगवान् सूर्य बेदात्मा, वेदमें स्थित,
वेदकिद्यास्वरूप तथा परम पुरुष कहलाते हैं। वे
सगातन देवता सूर्य हो रजोगुण और सत्त्वगुण
आदिका आश्रय लेकर क्रमणः सृष्टि, पालन और
संहारके हेतु बनते हैं और इन क्रमॉके अनुसार
बह्या, विष्ण आदि नाम थारण करते हैं। ये
देवताओं द्वारा सदा स्तनेन काने योग्य हैं, वेदस्वरूप
हैं। उनका कोई पृथक् रूप नहीं है। थे सबके
आदि हैं। सम्पूर्ण मनुष्य उन्हींके स्वरूप हैं।
त्रिश्चकी आधारथूता ज्योति वे हो हैं। उनके धर्म
अधवा सत्यका ठीक -ठोक ज्ञान नहीं होता। ये
वेदात्तगम्य ब्रह्म एवं पासे धी पर हैं।
तदनन्तर भगवान् सूर्पक्रे तेजसे नीचे तथा
ऊपस्के सभी लोक सन्तत होने लगे। वह देख
सृष्टिको इच्छा रखनेवाले कमलयोनि अ्रह्माजोने
सोचा- मृष्टः पालन और संहारके कारणभूतं
भगवान् भूर्यके सब ओर फैले हुए तेजसे मेरी
रची हुई सृष्टि भी नाशकौ प्राप्त हो जायगौ । जल
हौ प्मस्त प्राणियोंका जीवन है, वह जल सूर्यके
तेजसे सूखा जा रहा है। जलके विना इस चिश्वकी