राजकृत्य वर्णन |] [ २७१
कथान्तरेषु स्मरति प्रह्ृष्टवदतस्तथा ।
अतिरक्तस्य कतंव्या सेवा रविकुलोद्रह ! ।३७
मित्र न चापत्सु तथा च भृत्या भजन्ति ये निगु णमप्रमेयम् ।
निभु विशेषेण च ते व्रजन्ति सूरेनद्रधामामरवृन्दजुष्टम् । ३८
उदितं हुआ प्रदेश वाक्य भी अन्यया सम्भावित नहीं होता है और
सब आराघ्रनाओं में सुप्त की भाँति विचेष्टित किया करता है । कथाओं
में दोषों का क्षेप किया करता है और वाक्य का भङ्गं करता है। गुणों
के संकीत्त न करने पर भी विमुख के समान दिखलाई देता है। कर्मों के
करने पर भी अन्त्र हृष्टि डालता है-ये ही एकं विरक्त पुरुषके लक्षण
हुआ करते हैं। अब जो अनुरक्त होता है उसके लक्षणों का भी श्रवण
करलो । देखकर परम प्रसन्न अनुरक्त हुआ करता है और जो भी वाक्य
कहा जाता है उसे बडे ही आदर से ग्रहण करता है। कुशल-क्षेम के प्रश्न
आदि करता है ओर उपविष्ट होने के लिये आसन दिय! करता है
विविक्त दशन में और इसके एकान्त में इसकी शंका नहीं करता है।
उसकी उस कथा को श्रवण करके प्रसन्न मुख हो जाया करता है ।३१-
३५। उसके द्वारा कहै हुए अप्रिय वाक्यों को भी अभिनन्दित किया
करता है तथा थोड़े से भी उपायन को बड़े आदर से ग्रहण करता है ।
अन्य कथाओं में प्रहष्ट मुख वाला होकर स्मरण करता है। हे रवि-
कुलोद्रह ! इस प्रकार के अनुरक्त की सेवा करनी चाहिए । आपत्ति के
समयों में मित्र का उस प्रकार से नहीं जिस तरह भृत्यगण हैं वे अप्रमेय
और निगुण को सेवा करते हैं | वे भृत्य देववृन्दों के दवारा सेवित सुरेन्द्र
के घाम को तथा विशेष रूप से विभु को प्राप्त किया करते हैं ।३६-३५।