काण्ड-६ सुक्त- १२८ ६५
[ १३६ - केशदृहण सूक्त |
[ ऋषि- वीतहव्य । देवता-नितत्नी वनस्पति । एन्द्. अनुष्टप्, २ एकावसाना द्विपदा साम्नी वृहती ।]
१७२०. देवी देव्यामधि जाता पृथिव्यामस्योषधे । '
तां त्वा नितलि केशेभ्यो दृंहणाय खनामसि ॥१ ॥
हे ओषधे ! तुम पृथ्वी पर उत्पन्न हुई हो । तर होकर फैलतो हुई हे ओषधि देवि ! हम आपको अपने
केशों को सुदृढ़ करने केलिए, , खोदकर संगृहीत करते हैं ॥१ ॥
१७२१. दुह प्रलाज्जनयाजाताज्जातानु वर्षीयसस्कृधि ॥२ ॥
हे दिव्यौषधे !तुम केशों को लम्बे, सुदृढ़ करो एवं जो अभो उत्पन्न नहीं हुए हैं, उन केशों को उत्पन्न करो ॥
१७२२.यस्ते केशोऽवपद्यते समूलो यश्च वृश्चते । इदं तं विश्वभेषज्याभि षिञ्चामि वीरुधा॥
तुम्हारे जो केश गिर जाते हैं, जो मूल से टूट जाते हैं, उस दोष को ओषधि रस से भिगोकर दूर करते है ॥३ ॥
[ १३७ - केशवर्धन सूक्त ]
| ऋषि- वौतहव्य । देवता-नितलो वनस्पति । छन्ट-अनृषटप् ।]
१७२३. यां जमदग्निरखनद् दुहित्रे केशवर्धनीम्। तां वीतहव्य आभरदसितस्य गृहेभ्यः ।
जिन महर्षि जमदग्नि ने अपना कन्या के केशो कौ वृद्धि के लिए, जिस ओषधि को खोदा, उसे वीतहव्य
नाम वाले महर्षि, कृष्ण केश नामक मुनि के घर से लाए थे ॥१॥
१७२४. अभीशुना मेया आसन् व्यामेनानुमेयाः।
केशा नडा इव वर्धन्तां शीर्ष्णस्ते असिताः परि ॥२॥
हि केश बढ़ाने की इच्छा वाले ! १५ केश पहले तो अँगुलियों द्वारा नापे जा सकते थे, वे अब "व्याम"
(दोनो हाथ फैलाने पर जो लम्बाई होती है) जितने लम्बे हो गये हैं। सिर के चारों ओर के काले याल 'नड' नाम
वाले तृ्णो के समान शोघ्रता से बढ़ें ॥२ ॥
१७२५. दृंह मूलमाग्रं यच्छ वि मध्यं यामयौषधे ।
केशा नडा इव वर्धन्ता शीर्ष्णस्ते असिताः परि ॥३ ॥
हे ओषये ! तुम केशो के अग्रभाग को लम्बा, मध्य भाग यो स्थिर एवं मूल भाग को सुदृढ़ करो । ' ड'
(नसकट) जैसे नदी के किनारे पर शीघ्रता से बढ़ते हैं, वैसे हो सिर के चारो ओर काले केश बढ़ें ॥३ ॥
[१३८ - क््लीअत्व सृक्त ]
[ ऋषि - अधर्वा ¦ देवग्ग- नितत्नी वनस्पति । छत्द-अनुष्टप्, ३ पथ्यापंक्ति ।]
१७२६. त्वं वीरुधा शरष्ठतमाभिश्रुतास्योषधे ! इमं मे अद्य पूरुषं क्लीबमोपशिनं कृधि ॥
है ओषधे ! आप ओषधियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इस समय आप हमारे द्वेष - पुरुष को क्लीब स्त्री
के समान बनाएँ ॥१ ॥
१७२७. क्लीवं कृध्योपशिनमथो कुरीरिणं कृधि।
अथास्येन्र ग्रावभ्यामुभे भिनत्त्वाण्ड्यौं ॥२ ॥