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उत्तारभागे चतुर्दशोऽध्यायः

(वर्षा) ऋतु के बिना भी आकाश में बादल दिखाई दे रहे

हों, तो भी ग्राम या नगरों में अनध्याय होता है।

धर्षनैषुण्यकामानां पूतिगयेत्र नित्यज्ञः।

अन्तःशवगते प्रापे युपलस्य च सप्निधौ॥ ६८॥

धर्म में निपुणता चाहने वालों को आसपास दुर्गन्धमय

वातावरण होने पर अनध्याय रखना चाहिए। यदि गाँव में

कोई शव पड़ा हो, तथा शूद्रजाति के पुरुष के समोप भो

सदा अनध्याय रखना चाहिए।

अनध्यायो भुज्यपाने समवाये जनस्य च।

उदके मध्यरात्रे च विण्पूत्रे च विवर्जयेत्‌॥ ६९॥

उच्छिष्टः श्राद्धभुक्‌ चैव पनसापि न चिन्तयेत्‌।

प्रतिगृह्ण द्विगो विद्वानेकोरिप्टस्थ केतनम्‌॥७०॥

त्वहं न कौर्तयेदृब्रहम राज्ञो गोच सूतके।

यदि लोगों का समूह भोजन करता हो, तो अनध्याय

रखना चाहिए। उसी प्रकार जल मे, पध्यराप्नि में, विष्ठा ओर

मूत्र के त्याग करते समय (वेदाध्ययने) अध्ययन वर्जित

रे । उच्छिष्ट और { पितृनिमित्त) श्राद्ध में भोजन करने बाले

द्विज को मन से भी (वेद्‌ का) चिन्तन नहीं करना चाहिए।

विद्वान्‌ द्विजे को एकोद्दिष्ट का निमंत्रण प्रतिग्रहण करके राजा

और राहु के सूतक में तीन दिन तक वेदाध्ययन या

स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।

यावदेको5नुहि्टस्य स्नेहो लेप तिष्ठति॥७१॥

विप्रस्य विपुले देहे तावदबरह्म न कीर्चयेता।

विप्र के विशाल देह में जब तक एकोदिष्रश्नाद्ध के निषित

किया हुआ भोजन थोड़ी सी भी चोकनाहट या गन्धं को

स्थिति रखता हो, तव तक ब्रह्म (वेद) का कीर्तन

(अध्ययन) नहीं करना चाहिए।

शयानः प्रौड़पादश कृत्वा वै चावमिक्यकाप्‌।७२॥

नाधीयोतापिपं जख्या सृतकाद्यन्नपेव च।

नीहारे बाणपाते च सख्ययोरुधयोरपि।।७३॥

सोते हुए, पैर ऊँचे रखकर (आसनयुक्त) होकर

वेदाभ्यास न करें। जानुओं को वस्त्र से वधकः, मांस

खाकर तथा सूतकादि के अन्न को खाकर, कुहरा छा जाने

पर, बाण गिरने के समय और दोनों सध्या काल में अध्ययन

नहों करना चाहिए।

अपावास्यां चतुर्दश्यां पौर्णपास्यए्पीपु च।

उपाकर्मणि चोत्सर्गे त्रिरा क्षपणं स्पृतप्‌।।७४॥

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अमावास्या, चतुर्दश, पूर्णमासी तथा अष्टमी तिथियों में,

उपाकर्म संस्कार के समय और उत्सर्ग क्रिया के समय तोन

रात्रि तक क्षपण (अनध्याय) कहा गया है।

अष्टकायु अहोगात्रपृत्वन्तामु च राज़िषु।

मरार्गशीर्षे तवा पौषे माधमासे तवैव च॥७५॥

तिस्रोऽष्टकाः समाख्याताः कृष्णपक्षे तु सूरिषि:।

श्लेष्यातकस्य च्छायायां शाल्मलेमघुकस्य च॥॥७६॥

कदाषिदपि बाष्येयं कोविदारकपित्वयोः।

समानविद्ये च भृते तथा सब्रह्मचारिणि॥७७॥

अष्टका नामक श्राद्ध करम में एक रात-दिनं का अनध्याय

रहता है। ऋतु को अन्तिम रत्रियों में अनध्याय रखना

चाहिए। मार्गशशीर्ष, पौष, माघ मास के कृष्णपक्ष पे विद्वानों

ने तीन अष्टका (श्राद्ध) कही हैं (उस समय अनध्याय

रखना चाहिए)। श्लेष्मातक,' शाल्मलि' और मधुक की

छाया में तथा कोविदार और कपित्थं की छाया में कभी भी

अध्ययन नहं करना चाहिए। किसो समान विद्या तराले

म्राहध्यायो ( सहपाये) को मृत्यु हो जाने पर तथा ब्रह्मचारी

की मृत्यु होने पर भी अनध्याय होता है!

आचार्ये संस्थिते वापि त्रिरात्रं क्षप्ण स्पृतम्‌।

छिद्राण्येतानि विप्रार्णा येऽनध्याया- प्रकीर्तिताः ॥७८॥

हिसनि राक्चमास्तेषु तस्मादेताचिसर्ञयित्‌।

नैके नास्त्यनध्यायः सन्धयोपासन एव च॥७९॥

आचार्य की पत्यु होने पर भी तीन रात्रि का अनध्याय

कहा गया है। जो उपर अनध्याय कहे गये हैं, वे विप्रो के

बारेमे छिद्र हैं। इनमें राक्षस प्रहार कर सकते हैं। इसौलिये

इनका त्याग कर देना चाहिए। नित्य होने वाले कर्म में और

सन्ध्योपासन में कभी भी अनध्याय नहीं होता है।

उपाकर्मणि कर्मानि होपमत्रेषु चैव हि।

एकामृचपचैकं वा यसु: सामा वा पुनः॥८०॥

अष्टकाच्चास्वघोयोत पास्ते चातिवायति।

अन्घ्यायस्तु वादेषु नेतिहासपुराणयो:॥ ८१

न धर्षशास्त्रेणन्येषु पर्वाण्येतानि वर्जयेत्‌।

एष धर्मः सपामेन कीर्तितो ब्रह्मचारिणाप्‌।॥८२॥

. (णण 7५१५३ २०४४. (ऽतौ)

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